Tuesday, November 11, 2008

मैं सुलग रहा हूँ

मैं सुलग रहा हूँ ...
इस धधकती आग में ,
अपना शीश नीचे किए
धूम्र को कंठ पिए |

मैं सुलग रहा हूँ ...
इन अनजाने जज्बातों में ,
जो असत्य कसौटी पर
जगाते दिल में डर |


मैं सुलग रहा हूँ ...
अपनी ही इच्छाओं की गोद में ,
जो मर रही हैं कब से
छुपता रहा जिन्हें सब से |

मैं सुलग रहा हूँ ...
चेहरों के इस आशियाने में ,
जिसमें हर चेहरा मेरा है
फ़िर भी अक्स तेरा है |

मैं सुलग रहा हूँ ...
योजनाओं के अखाडे में ,
जो मुझे तोड़ रही हैं
बेबस सा अलग छोड़ रही हैं |

मैं सुलग रहा हूँ ...
सपनो के संसार में ,
जिसे वास्तविकता बनाना था
एक बाग़ नया सजाना था |

मैं सुलग रहा हूँ ...
अपनी तन्हाई में ,
जो साथ हो सकता था
मरू में एक पात हो सकता था |

मैं सुलग रहा हूँ ...
अपनी ही बातों में ,
जो दिल में होनी थी
मौके पर खोनी थी |

मैं सुलग रहा हूँ ...
लेकिन आज भी आता नही कोई ,
ये समझने कि मैं कहाँ बहा हूँ ...
मैं क्यूँ सुलग रहा हूँ !!!!!