Friday, June 28, 2013

चुनरी

सवेरे सवेरे चुनरी झटक कर 
बूंदों से जगा देती है ..
फिर कभी सोने लगूँ तो ..
चुनरी का तकिया बना देती है 
झल के पंखा कभी 
हवा की सी खुशबू देती है ...
तो माथे से कभी पसीना 
मेरे सोये में हठा देती है 
कभी चुनरी से खींच कर 
पास बुलाती है मुझे ...
कभी बाँध कर चुनरी आँखों में ..
मुझे गोल घुमा देती है ..
कभी करती है पर्दा ..
झीना सा चुनरी से ..
तो कभी चुनरी को ..
छत बना देती है
तो जो मुझे चुनरी से प्रेम है 
तो मेरी क्या खता है ?
तुम्हारी चुनरी मुझे तुमसे चुरा ले गयी ..
पूछो उससे !!
तुम्हारी चुनरी ही वजह है  । 

रंग

गली के पिछले मकान में 
सतरंगी रूमालो की उस दुकान में 
एक रंग खिलता है नया ..
न देखा न सुना 
न ख्वाबो में बुना 
वो रंगरेज बड़ा फरेबी है ..
बना के रंग ऐसे 
छिप गया है कहीं ..
या रंग में ही तो नहीं समाया है !
खुद को खुद में ही तो नहीं छिपाया है !
खेलने का मन किया था 
हाथ में भर लिया था ..
तो मेरी हथेली ही हो गया वो !
लगाने गया जो किसी को ..
तो उसकी सहेली ही हो गया वो !

अकेला

मैं  ..
अकेले शहर में ....
अकेले घर में  ...
अकेले दिल में  ...
अकेली धड़कन में 
तेरी तड़प को तड़प कर कभी 
महसूस करता हूँ  
स्पंदनो की छुहन 
बड़ी अजीब है ..
मुझे मेरे होने का एहसास दिलाती है 
जिंदगी जीने की आस जगाती है । 
अस्तित्व ही मेरा ..
तू है !
या तेरा मैं !
ये प्रश्न फिर पूछ कर उस अकेले दिल से ..
फिर अकेला मैं हो जाता हूँ यहाँ ..
अकेले दिल में ...
अकेले घर में ..
अकेले शहर में ..