Wednesday, February 12, 2020

क़्वांटम 'मैं'



घर के अंदर आग जल रही है
भरी हुयी केतली उबल रही है
केतली में पानी है
पानी में उठते बुलबुले
बुलबुलों के अंदर हवा
मैं फिर से शून्यता में खो गया !

बुलबुलों के नीचे पानी उबल रहा है
करोड़ों जिंदगियाँ हैं !
जीवन ऐसे ही चल रहा है
पानी में देखा तो मैं ही नजर आया
चम्मच उसमे डाली तो खुद को ही हिलाया
तो क्या था पानी
जब सब मैं ही हूँ  ,
तो बाकी केवल भोथरी कहानी ?
ख़ुद को ढूंढता मैं
यहाँ भी हूँ, वहाँ भी
सुपरइंपोज़्ड और इंटेंगल्ड !

नीचे जल रही है आग
नीली भी है , पीली भी
लाल भी हो जाती है कभी कभी मेरी तरह
जब तापमान ज्यादा होता है
राजा से हुनरमंद प्यादा होता है
और तब भी अगर मैं छू के
खींच लूँ अपने हाथ
तो जलूँगा नहीं जलाऊंगा !
पर जो दिया आग का साथ
तो आग ही बन जाऊँगा
अजीब दुविधा है
तप जाऊं ?  बन जाऊं ? बिखर जाऊं ?
इस क्वाज़ी स्टेट में कैसे निखर जाऊँ !

केतली का ढक्कन उठने लगा है
हवा ठोस को उठा रही है
कभी कभी होता है जिंदगी में ऐसा
इसलिये मैं हवा को कम नहीं आँकता
और न ही आंकना चाहिये ढ़क्कन को
जो आज दबा हुआ है कल उठेगा
और उखाड़ फेंकेगा सबको
भले ही वो हवा हो और तुम ठोस
सिफ़र ही अक्सर उड़ाता है होश
और माना उड़ गया वो हवा में
हवा को हवा से मिलाता ,
अट्टहास करता गर्जना सुनाता
निर्गुण - निराकरार - निर्भय शून्य !

पानी के बाहर केतली कंपकपा रही है
काँप तो मैं भी रहा हूँ
सर्दी  भी है और गर्मी भी
फिर और ध्यान से देखा तो
धातु नजर आयी , अणु दिखे
परमाणु दिखे ,
अब इलेक्ट्रान , प्रोटोन दिख रहे हैं
और अंदर देखता हूँ तो कुछ नहीं दिखता है
कुछ है तो सही पर बनता बिगड़ता है
पहचान करना मुश्किल है
बिलकुल मेरी तरह !
तो क्या मैं क़्वांटम बन चुका हूँ ?

Monday, November 18, 2019

मैं वही हूँ



मैं वही हूँ ...
माँ की बुनी स्वेटर में गुंथा 
भाई की रफ़ू कमीज में सज़ा 
यार की अंगरेजी की टीशर्ट में सना
जिसमें लिखा न उससे न मुझसे बना !

मैं वही हूँ .. जिसके घर में 
मेहमानों के लिये अलग बिस्कुट निकलते हैं
नये टीवी के परदे बड़ी देर में खुलते हैं 
मिठाई इंसानो से पहले खाते हैं गणेश जी
पुरानी जीन्स के धागे पहले दरी फिर पोछे में मिलते हैं !

मैं वही हूँ ... 
इम्तिहान से पहले दही खाने वाला
सीट घेरने को रुमाल बिछाने वाला 
वन टिप आउट जैसे नियम बनाने वाला
कटी पतंग को उठा जोड़ फिर उड़ाने वाला

मैं वही हूँ ... 
सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने वाला
अपनी सैलरी को सीटीसी में बताने वाला 
लड़कियों से नजरें चुराने वाला 
बस बातों में नौकरी छोड़ जाने वाला 

मैं वही हूँ.....
शादाब के घर सेंवइयाँ खाता हूं 
गुरचरण को पंजाबी गाने में नचाता हूँ
क्रिस की अंग्रेजी की कॉपी करता हूँ कभी
कभी भूल कर इन सबको रंग लगाता हूँ

एक बात जो मुझे भारतीय बनाती है 
एक बात जो जिंदगी मेरी सजाती है 
प्रेम बहुत है मुझमें बस जेब से थोड़ा कड़का हूँ !
मैं वही आपकी गली के पीछे वाला ...
मध्यमवर्गीय भारतीय लड़का हूँ

Saturday, November 9, 2019

जिंदगी













पत्थर बनाने की कोशिश बहुत की ज़ालिम ने
मैं दरिया के पास था ,
 बस पिघल गया !

यूँ तो रोक लेता था खुद को मारकर हर शाम
वो शाम गुलाबी थी ,
 मन मचल गया !

मुझे देवता बनाने का शौक था अय्यारों को
महफ़िल सजी रह गयी ,
मैं निकल गया !

मैं चट्टानों के मानिंद खड़ा रहा तूफानों में
किसी की चुनरी लहरायी ,
 बस बिखर गया !

तारीफों के बोझ में दबा हुआ जिस्म मेरा 
किसी ने गाली दी ,
यूँ ही निखर गया |

चलता रहा अंधेरों में बेख़ौफ़ गाते हुये
उस गली में बहुत उजाला था,
 मैं सिहर गया |

हथियारों के साथ चलता रहा भीड़ में
मुझे काज़ी बना दिया
मैं सुधर गया |

लड़ पड़े थे लाश को लेकर मज़हब दोनों
वो कबीरा था
पता नहीं किधर गया |

दस रास्तों में बस एक रास्ता अनजान था
मुझे खुद को ढूँढना था
मैं उधर गया |

Sunday, April 28, 2019

आम

चलो आम खाते हैं 
मीठे मीठे आम चुस्कियों से भरे
मुझको तुमको ताकते खड़े खड़े
लेकर एक झोला हंसिया कंटीला सा 
तोड़ लाते हैं
चलो आम खाते हैं !

डर क्यूँ रहे हो ?
मिट्टी में ज़हर थोड़ी भरा है 
जमीन सूख रही तो क्या 
आम देखो बिल्कुल हरा है !
मिट्टी में थोड़ा सा पानी छिड़क कर 
पैरों से दबाते हैं
चलो आम खाते हैं !

ये बाग किसका है हमें नही पता 
अब भूख लग आयी तो हमारी क्या खता ?
वैसे भी सुना है मालिक इसका बेदम है
उसके बाग में क्या , 
उसके तो घर में भी पानी कम है !
थोड़ी दूर ही हरा मैदान है पानी से लबालब
रविवार है उसे देख आते हैं 
चलो आम खाते हैं !

ये आम पीला है कि हरा है ?
कोई कह रहा है अंदर केसरी रंग भरा है !
ऐसा करते हैं कि रंगों को अलग कर देते हैं 
तुम पीला ले लो हम हरा ले लेते हैं 
देखते हैं कि किसका आम ज्यादा खट्टा है
किसमें चीनी है किसमें मट्ठा है ?
खट्टे आम का हम क्या करेंगे ?
इकट्ठा करो विदेश भेज आते हैं
चलो आम खाते हैं !

सोच रहे हैं आमरस पी लिया जाये 
इतनी गरमी है 
थोड़ा जी भर के जी लिया जाये
पर आमरस बनाने आयेगा कौन ?
आ भी गया तो आमरस बनायेगा कौन ?
इस गाँव के सभी लोग नाकारा हैं 
इनको मशीनें दी थी पिछले साल 
लगता है मशीनें ही आवारा हैं 
छोड़ो साहब थोड़े पैसे बचा जाते हैं 
चलो आम खाते हैं !

ओह आम में कीड़ा लग गया है !
पिछले साल तो नई गुठलियां डाली थी 
ये पेड़ की डाली तो चमकने वाली थी !
पता नहीं क्या हुआ ..
पास की छोटी घास मर गयी है 
नया मिनरल वाटर भी तो आया था
शायद उससे डर गयी है !
एक दो डाली तो बची हैं चकाचक
थोड़ा आराम फरमाते हैं 
चलो आम खाते हैं 

सुना यहाँ कल रात को चोरी होने वाली थी ?
हमने भी निशाना लगा के गुलेल मारी थी
पर अंधेरा था पता नही लगी न लगी 
चिड़िया मगर इस पेड़ पर देख के ये सब 
रात भर जगी !
चिड़िया तो भोली है 
इनकी भी टोली है 
इनको गुलेल दिखा लाते हैं
चलो आम खाते हैं !

शायद ये आम सड़ गया है 
पानी , मिट्टी , खाद , धूप कुछ न मिला 
हम तो मगर आज़ाद हैं हमे क्या गिला 
कीड़े लग गये तो लगने दो 
भौंरे जग गये तो जगने दो
रसहीन हो जाने दो इस आम को
भूखा मरने दो तमाम को
हमें चिंता नहीं 
हमारे आम बिदेशों से आते हैं
चलो आम खाते हैं !

Sunday, February 10, 2019

चीख़

चुप रहने की कोशिश है हर तरफ़ 
भीड़ पीछे हट रही है 
वो अकेला आगे बढ़ रहा है
उसकी जीभ कट रही है 

हामी भरने की क़वायद में 
इंसान गायब हो रहे हैं 
कंकालों से भरा है तालाब
मेढक साहब हो रहे हैं 

सुबह सवेरे चल पड़ती है मशीन 
हर पुर्जा जोरदार आवाज करता है 
आवाज़ शायद सुन ले खरीदने वाला
सोचकर वो हर रात मरता है 

अकेलेपन से डरता है खौफजदा हो 
भीड़ के साथ दौड़ने लगता है 
दोनों हाथों से पकड़ कर हड्डी रीढ़ की
पूरी शिद्दत से मोड़ने लगता है 

पिघल जाता है लोहा लम्हों में 
ढलकर औजार बन जाता है 
काट देता है दूसरे लोहे को 
बेरहम हथियार बन जाता है 

बेइंतहां डर को सीने में लिये 
सिमट कर सोने लगा है 
हंसता मुस्कुराता दिन बिताता 
अंधेरों में रोने लगा है 

जीभ की परवाह हो गयी उसे 
जिगर की खबर नहीं रही है 
वैसे भी इस उत्तराधुनिक युग मे
ये भी सही है , वो भी सही है 

भूल गया कि केवल आँखे भी 
काफ़ी हैं जी भर बोलने के लिये
भूल गया कि केवल साँसें भी 
काफी हैं किसी के डोलने के लिये 

भूल गया कि आवाज उठाने के लिये
दूसरे पाले में झपट्टा मारना जरूरी है
जीत की गुंजाइश कहीं कभी बाकी रहे 
इसलिये बेख़ौफ़ हो हारना जरूरी है 

याद उसको आ गया जो ये नज़ारा 
टूट के चमकेगा फ़िर से वो सितारा
जीभ लंबी हो के रस्सी बन सकेगी 
फांद बन जायेगा कोमल ये नजारा
थरथरा जायेंगे हुक्मरानों के घर 
साथ उसके तुमने गर जो दहाड़ा 
एक उसकी लाश पर ही बन सकेगा 
हर पहर आज़ाद बागी घर तुम्हारा 
हर पहर आज़ाद बागी घर तुम्हारा

Tuesday, March 20, 2018

किरदार

















मुझे जानने की ख्वाहिश बहुतों ने की
उनको पता नहीं था ..
मैं किरदार में हूँ !

मेरा किरदार अनोखा है
खुद से जुदा
खुद पर फ़िदा
देखता सबको
देखता ख़ुद को !
और हंस देता बेमतलब सा 
बेमतलब की बातों पर |
हंसाता रुलाता छिपाता सजाता
मेरा किरदार वादे निभाता
कुछ को समझ आता
कुछ को खटक जाता !
सुनकर ख़ामोश सोचता
मैं किरदार में हूँ !

कुछ चेहरे हैं , कुछ हैं मुखौटे
सिक्के चमक रहे हैं खोटे खोटे
वो भी तो किरदार हैं
वो भी असरदार हैं
फिर लड़ाई किरदारों की है ?
या मेरी तुम्हारी !
किरदार जान नहीं पायेंगे
पहचान नहीं पायेंगे
कोशिश तो करेंगे
शायद पहचान भी लें
पर मान नहीं पायेंगे !
मैं भी क्यूँ मानूँ ?
मैं तो किरदार में हूँ !

मेरा प्रेम भी किरदारों वाला है
तुमने भी तो शौक़ पाला है ?
सपने जिंदगी को मात दे रहे हैं
किरदार आग को आँच दे रहे हैं
डर क्यूँ रहे हो ?
तुम्हारी भी तो केंचुली है !
किरदारों की शोख़ी
विरासत में मिली है |
ये देख रहे हो न समाज !
इसका भी किरदार है
कभी मंदिर है कभी मस्जिद है
और कभी लुटता बाजार है !
तो आओ कुछ खरीदें यहाँ से
प्रेम , द्वेष , दया , हिंसा
सब मिलता है यहाँ |
कीमत बदल जाती है पर
किरदार देखकर !
तो बदल लेना तुम भी किरदार
दुकान देखकर !
मैंने तो मुफ्त में लिया है सब कुछ
मैं तो किरदार में हूँ |

कभी कभी जब खामोश सोता हूँ
तो अपने किरदार में नहीं होता हूँ
देख नहीं पाता खुद को तब !
तुम भी नहीं देख पाओगे
कितने शीशे लाओगे ?
आदमी नंगा होता है
अपने किरदार के बिना !
पता है तुम्हें
संभल नहीं पाओगे |
तो अपने किरदार में रहो
आँखे बंद करो
और कहीं दूर तक बहो
जहाँ एक गाँव नया है
और वहाँ भी हवा चल रही है 
नये नये किरदारों की !
मुझे ढूँढ रहे हो ?
नहीं मिलूंगा !
मैं किरदार में हूँ  |



Monday, January 16, 2017

सभ्यता और समय 















समय की चाल पर खेलता
खंडहरों का हुजूम
और खंडहर हो जाता है
देखता अगर खुद को आईने में
बेसबर हो जाता है !

अंतहीन जीवन की कल्पना
स्वयंभू का अस्तित्व खोजता
मानव गढ़ता है राजमहल
होती है चहल पहल
चंद पलों की ...
और पल अगला निगल जाता है
पुराने पल को !
ठिठकती सभ्यतायें देखती
इस सतत छल को !

अदना सा मानव देखता
खुद को विजयी होते
सागर , पर्वत , व्योम
कितने छोटे लगते !
लेकिन भान नहीं है
धरती के गर्भ का ?
या फिर भान अधिक है
स्वयं के दर्प का ?
लावा निकलता कभी गर्भ से
कभी अपने अंदर छुपे दर्प से
और लुहलुहान होकर आखिर
बदल जाती है सभ्यता !
जिसे देखने आती नयी सभ्यता
अपना नया दर्प लेके !

ये पहिया चलता जाता है
घूम कर फिर वहीँ वहीँ आता है
बीच में कुछ अस्तित्वहीन धूलि कण
कर देते हैं अपने काल्पनिक युग का निर्माण
जिसे अगले चक्र में पहिये के नीचे आना है
जिसे अपना वजूद खुद ही मिटाना है !!