Saturday, November 26, 2011

नशा

नशे को मैंने नहीं आजमाया था ..
मेरा महबूब ने मुझे नशा पिलाया था |

नशे में उसके कमबख्त मैं बहक गया था ..
मेरा महबूब धानी चुनरी में जब आया था |

नशे में ही था जब हाथ चूम जुदा किया उसको ..
मेरा महबूब जब सजा के रुसवाई लाया था |

नशे में वो हाथ मेरा महीनो तक न धुला ..
जिससे मुसकुरा महबूब ने एक कौर खाया था |

नशे में होश खोया ये मालूम न था ..
महबूब नहीं महबूब का वो साया था |

नशे में था इंतज़ार की हद तक इंतज़ार किया ..
मेरे महबूब ने फिर से बेवफाई का गीत गाया था |

मेरे नशे तो इसलिए कहता हूँ बदनाम न करो ..
मेरे महबूब से पूछो उसने नशा क्यूँ पिलाया था |

आज का लोकतंत्र

इस दौर में क्या अनोखा समां बंधा है ..
लोकतंत्र में राजा गद्दी पर सजा है |

जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए तंत्र है ..
या चुनिन्दा हुक्मरानों के हाथों का वर्ग यन्त्र है ?

इस तंत्र में क्या मरता किसान आता है ?
जिसके लिए बस कागजी धन लुटाया जाता है |

बेबाकी से इस तरह विदेशी निवेश आता है ,
कि बचा खुचा भी फिर से विदेश जाता है |

अजीब बात है यहाँ स्पेक्ट्रम तो बहुत बिकता है ..
लेकिन उस गाँव में रात को आज भी नहीं दिखता है |

पूरे देश में अलग अलग आवाजों में लोकपाल होता है ..
लोकपाल है क्या पूछता कोई रात पुल के नीचे सोता है |

बातचीत से मुद्दे सुलझाने में कहते हैं वो कि गलती नहीं ..
पर क्या करें हमारी मुई संसद भी तो चलती नहीं !

लोकतंत्र है भैया यहाँ वेतन के साथ पेट्रोल के दाम भी बढ़ते हैं ..
कालाहांडी में भूख से मरे बच्चे ..शव आज भी सड़ते हैं |

ये तो सबको पता है ऐसे लोकतंत्र में देर होती है ..
ये किसी को पता है क्या कि कभी सबेर होती है ?

बड़ा अजीब लोकतंत्र है जहां विवेक पता नहीं कहाँ खो जाता है ..
पटरी उखाड़ने की धमकी दे समूह आरक्षित हो जाता है |

अपना वेतन बढ़ने के प्रस्ताव ध्वनि मत से पास होते हैं ..
मुद्रा स्फीति की बात आये तो हुकमरान बैठे बैठे सोते हैं |

कभी बुद्धू बक्से में देखो कैसे ये सब लड़ते हैं ..?
'लोकतंत्र की हत्या न हो' रिमोट पकडे लोग डरते हैं |

लेकिन शायद लोकतंत्र तो पहले ही मर चुका है ..
उसके अंतिम संस्कार भी न हुआ ..
देखो वो सड़ चुका है |

इसे जिलाना है तो संजीवनी लानी होगी ..
जख्म धोने होंगे बूंदें पिलानी होंगी ..
मेरे दोस्तों ! तुम ही मेरे देश के कर्णधार हो ..
तुम ही इस लोकतंत्र के हथियार हो |

Thursday, November 24, 2011

युवा से प्रश्न

तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?
बिखरी हुई जवानी हो चुका है ?

समर हो रफा ऐसा निशां कहीं दिखता नहीं ...
तंदूर की आग में बस नान ही सिकता नहीं !
शोणित लालिमा था क्या अब धानी हो चुका है ?
तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?

तूने ही तो पहले माँ का कर्ज चुकाया था ...
तू ही पहले आततायी का सर काट के लाया था !
फिर अब क्या अब इतिहास कहानी हो चुका है ?
तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?

देश तेरा है जल रहा हाँ आज लुटेरे जिन्दा हैं ..
गाँधी का है कत्लेआम और अन्ना शर्मिंदा हैं |
भगत सिंह का बलिदान यहाँ नादानी हो चुका है ..
और ..तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?

कायर होते अच्छे की उम्मीद लगाकर मरते हैं ..
निर्भय होते अपने दम पर सब कुछ अच्छा करते हैं |
कौन सुभद्रा लिखती अब कोई मर्दानी हो चुका है ?
तेरा खून ..क्या पानी हो चुका है ?

केवल जिन्दा रहना था तो मनु का बेटा क्यूँ बना ?
जिगर नहीं है लड़ने का तो कर दे खुद को तू फ़ना |
लगता है मायाजाल का तू भी ज्ञानी हो चुका है ..
शायद इसीलिए ..तेरा खून पानी हो चुका है |

शाश्त्र यहीं हैं, शास्त्र यहीं हैं इन्हें उठा के लड़ना सीख ..
मन का संबल धारण करके हँसते हँसते मरना सीख ..
जीवन का सच 'गर्वित जीवन' क्या बस जबानी हो चुका है ?
तेरा खून ..तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?

हुस्न-मोहब्बत करने को जीवन सारा पड़ा है देख ..
युवा वायु का उल्टा है जिसका लक्षण होता 'वेग' !
वो वेग कहाँ है परदे में क्या शर्मानी हो चुका है ?
क्या तेरा खून पानी हो चुका है ?

तेरे मुल्क का अब क्या होगा ये तुझपर ही निर्भर है ..
कलियुग में न राम कहीं, न ही कोई गिरिधर है ..
मुल्क तेरा लहू में विष से कितना सानी हो चुका है ?
तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?

अनुशासन हथियार तेरा है पहले खुद से लड़ना सीख ..
अँधा कर दे उस कातिल को मत डर से तू आँखें मींच ..
धूप नहीं है छाँव नहीं है मौसम तूफानी हो चुका है !

तेरा खून क्या पानी हो चुका है ?
बिखरी हुई जवानी हो चुका है ?

Wednesday, November 16, 2011

बुलबुले

मैं वो ही तो हूँ ..बुलबुला !
तुम्हारी तरह पैदा हुआ ..
फिर से खुद में ..
मिल जाने के लिए ..
कुछ पाने के लिए ..
हाँ ..मुझे देखो तो सही ..
मुझमें तस्वीर नजर आएगी ..
सपनो की ..अपनों की
वो भी जो पूरे न हुए ..
वो भी जो अधूरे न हुए ..
वो भी जो पिछड़ गए ..
वो भी जो बिछड़ गए ..
लेकिन अब मैं दुखी नहीं होता ..
और अब मैं अकेले में भी नहीं रोता ..
क्यूंकि मैं अकेला थोड़ी हूँ ..
भीड़ में !
नीड़ में !
घोंसला बनाने कई आये ..
हवा का अंदाजा न था ..
तो बिखर गए कुछ साये ..
तो क्या मैं भी बिखर जाऊं ?
ऐसा ही सारे बुलबुले सोचते हैं ..
नोचते हैं ..खुद को हौसला देकर ..
बनते बिगड़ते ...अपने अस्तित्व को ढूँढने ..
फिर जनम लेते हैं ...
समुन्दर में पहुँचने की आस में ..
खुद को खुश करने की प्यास में ..
और मैं भी वो ही हूँ ..
वही बुलबुला ...
जो खुद से ज्यादा नदी पर निर्भर है ..
और कुछ पत्थरों पर भी ..
डुबकी लगाने वाले ..
अभी तो मैं जिन्दा हूँ ..
देखते हैं समुन्दर की आस ..
कब ख़तम होती है ..?
जीवन की प्यास ..
कब ख़तम होती है ?

Friday, November 11, 2011

उलझन

मैं पत्ता हूँ ...बिखरा हुआ ..
उलझा सा ...सुलझा सा ...कभी कभी ..
डाल मुझे छोड़ चुकी है ..
हवा मुझे मोड़ चुकी है ..
कहाँ ? और क्यूँ ?
प्रश्न बहुत उठते हैं ..
मन ही मन में घुटते हैं ..
मैं लहरा रहा हूँ ..
अस्तित्व की तलाश में ..
जिसे वो अनिर्वचनीय कहते हैं !
फिर क्यूँ भान होता है ..
अभिमान होता है ..
और मैं फिर गिरता हूँ
धरती की गोद में सामने के लिए |