Friday, November 11, 2011

उलझन

मैं पत्ता हूँ ...बिखरा हुआ ..
उलझा सा ...सुलझा सा ...कभी कभी ..
डाल मुझे छोड़ चुकी है ..
हवा मुझे मोड़ चुकी है ..
कहाँ ? और क्यूँ ?
प्रश्न बहुत उठते हैं ..
मन ही मन में घुटते हैं ..
मैं लहरा रहा हूँ ..
अस्तित्व की तलाश में ..
जिसे वो अनिर्वचनीय कहते हैं !
फिर क्यूँ भान होता है ..
अभिमान होता है ..
और मैं फिर गिरता हूँ
धरती की गोद में सामने के लिए |

1 comment:

Anand Shankar Mishra said...

haaha.. cheeloo kabhi sudhar nahin sakte :)
ye padhiye.. http://asm027.blogspot.com/2011/11/of-burdens.html

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