Monday, September 30, 2013

गाँव ...


मेरे गाँव का रस्ता खाली पड़ा है
और पड़े हैं कुछ सूखे पत्ते
पलों को गिनते हुए ।

आवाज जो रुंधे गले से
निकलने की ख्वाइश में
खुद को ही दबा रही है  ।

कुछ लौटते क़दमों से उडती धूल
जिंदगी का एहसास देती
मुझे अँधा बना रही है ।

और देखूं भी तो क्या भला !
सन्नाटे का कोलाहल
आत्मा चीरता निकल जाता है
बिना रक्त की बूँद बहाए
और मैं रक्तबीज बन जाता हूँ
फिर से जीने के लिए !

कुछ खाली मकान है पास में
जिनको बनाने को घर
कभी पागल हुआ था कोई
आज वो फिर से ..
पागल हो गया है ।

कभी बांसुरी की तान पर नाचती,
ये हवा जहरीली है ।
सांस में रची बसी ..
सबको लील जाने के लिए
अट्टहास सी भयावह हंसी ।

गाँव
धारे पर गिरता वो झरना
अपना रंग बदल चुका है
देखो नदी भी स्याह है
रक्त अब काला हो चुका है ।

अमराई व्याकुल हो ताकती
उन इंसानी आवाजों को
जो अब मुर्दों की जुबां बोलते हैं
मुर्दा बन जाने के लिए ।

ओ मौत के देवता !
मुझे भी समा लो अपने में
मैं अपना गाँव फिर से बसाऊंगा
अपने में ही !

Tuesday, September 17, 2013

कान्हा



तू मेले को मक्खन दे
मैं चाट चाट के काऊंगा
मुद्को बी एकताला ला दे
मैं बी गाना गाऊंगा ।

मैया तेली डांट ते मुद्को
सच्ची में डल लगता है
मेला तू भलोचा कल्ल्ले
ताल नहीं मैं दाऊंगा ।

वो गोपी मुदे तिलाती है
अपने पात बुलाती है
फिल मैं दब मक्खन काता
तेले पात बताती है ।

तू उतको डाट लगा कल
मैं बी कुच हो दाऊंगा
पिल मैं नाच दिकाऊंगा
तेले मन को बाऊंगा ।

मैंने मिट्टी काई थी
वो लाधा ने मुदे किलाई थी
माँ लाधा मुदे तिलाती है
काला मुदे बुलाती है ।

माँ तू उतको डांट लगा दे
मैं अत्ता कान्हा बन दाऊंगा
फिल जो मिट्टी काई ती
तेले लिये मैं लाऊंगा ।

माँ मैं तो इतना तॊता हूँ
मक्कन उपल होता है
जब मैं उपल जाता हूँ
मक्कन नीचे ऒता है ।

माँ तू मेलको घड़ा ला दे
मैं मक्कन का हो जाऊँगा
फिल तू दब दब पास बुलाये
मैं भी गोदी आऊंगा ।

माँ मैंने कपले नई चुलाये
वो तब मुदे सताती है
मुदको कपडे पैनाकल अपने
चबको कूब हंचाती है ।

माँ उनको बी डांट लगा दे
मैं जमुना बन दाऊंगा
सलकंडे का पेल वहाँ है
बांतुली ले के आऊंगा । 

Monday, September 16, 2013

रक्तबीज



अखंड वार है प्रचंड
दुश्मनों को खंड खंड
कर चला है वीर हो
रक्तमय सा नीर हो ।

भुजाओं में फड़क नयी
आवाज में धमक वही
गरज के जो वो चले
तो क्या गलत है क्या सही !

रूद्र का प्रताप है
वो अनल का ही ताप है
वरदान है कहीं बना
कहीं पे वो शाप है ।

रोकती जहां जमीं
वो खोदता वहीँ वहीँ
शमशीर की टंकार से
फिर वहाँ गंगा बही ।

वो रक्तबीज है नया
न भाव है न है दया
वो मर गया वो कट गया
वो रास्तो में डट गया ।

हौसले जवाब दे
जब कभी वो सांस ले
थरथरा उठे कदम
लौह बन गया पदम् ।

भीख मांगते सभी
मृत्यु की पनाह में
जी गया वो मर के भी
मृत्यु की ही चाह में । 

Friday, September 6, 2013

मैं चाहता हूँ ...

मैं परिंदों के जहां में उड़कर
उनके पंख चुराना चाहता हूँ
उनको अपने जहां में लाकर
अपनी तरह उड़ाना चाहता हूँ ।



मैं आसमानों की बस्ती में नया
एक घर बनाना चाहता हूँ
बादलों की क्यारियों में
एक वृक्ष लगाना चाहता हूँ ।

मैं  बेपरवाह गिरती बूंदों को
पकड़कर सताना चाहता हूँ
मैं इन्द्रधनुष के रंगों से
एक रंग बनाना चाहता हूँ ।

मैं चाहता हूँ की कुछ सितारे नए
पूनम के चाँद से सुन्दर दिखें
मैं चाहता हूँ की कुछ बाजू नए
कवि की कल्पना से अच्छा लिखें।

मैं चाहता हूँ की क्षितिज में कहीं
एक आसमान जमी सच में मिलें
मैं चाहता हूँ की दो गुलाब नए
किसी जीवन मरू में फिर से खिलें ।

मैं चाहता हूँ की सरिता इठलाकर
सरोवर से बेतहाशा लड़ सके
मैं चाहता हूँ की निर्जीव अमरत्व
एक बार चैन से मर सके ।

मैं अंधेरों को गले लगाकर
खुद को मिटाना चाहता हूँ
मैं रोशनी के जालों को
एक बार हटाना चाहता हूँ ।

मैं रूप का तिरस्कार कर आज
अपनी कुरूपता को हँसाना चाहता हूँ
मैं मुट्ठी को बंद करके उसमें
वो पुरानी रेत फंसाना चाहता हूँ ।

मैं चाहता हूँ की ख़ामोशी आज
बातों से बातों में जीत जाए
मैं चाहता हूँ की ये जीवन अब
सपनो ही सपनो में बीत जाए ।

मैं स्वयं को समझकर आज
समझ को समझाना चाहता हूँ
मैं कालकोठरी बन चुके वही पुराने
अपने घर जाना चाहता हूँ ।

मैं शब्दों की गुलाम बन चुके
पुराने प्रतिमान हटाना चाहता हूँ
जो मुझको तुमको बाँध दें एक हस्ती में 
उस हस्ती की हस्ती मिटाना चाहता हूँ ।