Friday, September 6, 2013

मैं चाहता हूँ ...

मैं परिंदों के जहां में उड़कर
उनके पंख चुराना चाहता हूँ
उनको अपने जहां में लाकर
अपनी तरह उड़ाना चाहता हूँ ।



मैं आसमानों की बस्ती में नया
एक घर बनाना चाहता हूँ
बादलों की क्यारियों में
एक वृक्ष लगाना चाहता हूँ ।

मैं  बेपरवाह गिरती बूंदों को
पकड़कर सताना चाहता हूँ
मैं इन्द्रधनुष के रंगों से
एक रंग बनाना चाहता हूँ ।

मैं चाहता हूँ की कुछ सितारे नए
पूनम के चाँद से सुन्दर दिखें
मैं चाहता हूँ की कुछ बाजू नए
कवि की कल्पना से अच्छा लिखें।

मैं चाहता हूँ की क्षितिज में कहीं
एक आसमान जमी सच में मिलें
मैं चाहता हूँ की दो गुलाब नए
किसी जीवन मरू में फिर से खिलें ।

मैं चाहता हूँ की सरिता इठलाकर
सरोवर से बेतहाशा लड़ सके
मैं चाहता हूँ की निर्जीव अमरत्व
एक बार चैन से मर सके ।

मैं अंधेरों को गले लगाकर
खुद को मिटाना चाहता हूँ
मैं रोशनी के जालों को
एक बार हटाना चाहता हूँ ।

मैं रूप का तिरस्कार कर आज
अपनी कुरूपता को हँसाना चाहता हूँ
मैं मुट्ठी को बंद करके उसमें
वो पुरानी रेत फंसाना चाहता हूँ ।

मैं चाहता हूँ की ख़ामोशी आज
बातों से बातों में जीत जाए
मैं चाहता हूँ की ये जीवन अब
सपनो ही सपनो में बीत जाए ।

मैं स्वयं को समझकर आज
समझ को समझाना चाहता हूँ
मैं कालकोठरी बन चुके वही पुराने
अपने घर जाना चाहता हूँ ।

मैं शब्दों की गुलाम बन चुके
पुराने प्रतिमान हटाना चाहता हूँ
जो मुझको तुमको बाँध दें एक हस्ती में 
उस हस्ती की हस्ती मिटाना चाहता हूँ । 

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