Monday, September 30, 2013

गाँव ...


मेरे गाँव का रस्ता खाली पड़ा है
और पड़े हैं कुछ सूखे पत्ते
पलों को गिनते हुए ।

आवाज जो रुंधे गले से
निकलने की ख्वाइश में
खुद को ही दबा रही है  ।

कुछ लौटते क़दमों से उडती धूल
जिंदगी का एहसास देती
मुझे अँधा बना रही है ।

और देखूं भी तो क्या भला !
सन्नाटे का कोलाहल
आत्मा चीरता निकल जाता है
बिना रक्त की बूँद बहाए
और मैं रक्तबीज बन जाता हूँ
फिर से जीने के लिए !

कुछ खाली मकान है पास में
जिनको बनाने को घर
कभी पागल हुआ था कोई
आज वो फिर से ..
पागल हो गया है ।

कभी बांसुरी की तान पर नाचती,
ये हवा जहरीली है ।
सांस में रची बसी ..
सबको लील जाने के लिए
अट्टहास सी भयावह हंसी ।

गाँव
धारे पर गिरता वो झरना
अपना रंग बदल चुका है
देखो नदी भी स्याह है
रक्त अब काला हो चुका है ।

अमराई व्याकुल हो ताकती
उन इंसानी आवाजों को
जो अब मुर्दों की जुबां बोलते हैं
मुर्दा बन जाने के लिए ।

ओ मौत के देवता !
मुझे भी समा लो अपने में
मैं अपना गाँव फिर से बसाऊंगा
अपने में ही !

Tuesday, September 17, 2013

कान्हा



तू मेले को मक्खन दे
मैं चाट चाट के काऊंगा
मुद्को बी एकताला ला दे
मैं बी गाना गाऊंगा ।

मैया तेली डांट ते मुद्को
सच्ची में डल लगता है
मेला तू भलोचा कल्ल्ले
ताल नहीं मैं दाऊंगा ।

वो गोपी मुदे तिलाती है
अपने पात बुलाती है
फिल मैं दब मक्खन काता
तेले पात बताती है ।

तू उतको डाट लगा कल
मैं बी कुच हो दाऊंगा
पिल मैं नाच दिकाऊंगा
तेले मन को बाऊंगा ।

मैंने मिट्टी काई थी
वो लाधा ने मुदे किलाई थी
माँ लाधा मुदे तिलाती है
काला मुदे बुलाती है ।

माँ तू उतको डांट लगा दे
मैं अत्ता कान्हा बन दाऊंगा
फिल जो मिट्टी काई ती
तेले लिये मैं लाऊंगा ।

माँ मैं तो इतना तॊता हूँ
मक्कन उपल होता है
जब मैं उपल जाता हूँ
मक्कन नीचे ऒता है ।

माँ तू मेलको घड़ा ला दे
मैं मक्कन का हो जाऊँगा
फिल तू दब दब पास बुलाये
मैं भी गोदी आऊंगा ।

माँ मैंने कपले नई चुलाये
वो तब मुदे सताती है
मुदको कपडे पैनाकल अपने
चबको कूब हंचाती है ।

माँ उनको बी डांट लगा दे
मैं जमुना बन दाऊंगा
सलकंडे का पेल वहाँ है
बांतुली ले के आऊंगा । 

Monday, September 16, 2013

रक्तबीज



अखंड वार है प्रचंड
दुश्मनों को खंड खंड
कर चला है वीर हो
रक्तमय सा नीर हो ।

भुजाओं में फड़क नयी
आवाज में धमक वही
गरज के जो वो चले
तो क्या गलत है क्या सही !

रूद्र का प्रताप है
वो अनल का ही ताप है
वरदान है कहीं बना
कहीं पे वो शाप है ।

रोकती जहां जमीं
वो खोदता वहीँ वहीँ
शमशीर की टंकार से
फिर वहाँ गंगा बही ।

वो रक्तबीज है नया
न भाव है न है दया
वो मर गया वो कट गया
वो रास्तो में डट गया ।

हौसले जवाब दे
जब कभी वो सांस ले
थरथरा उठे कदम
लौह बन गया पदम् ।

भीख मांगते सभी
मृत्यु की पनाह में
जी गया वो मर के भी
मृत्यु की ही चाह में । 

Friday, September 6, 2013

मैं चाहता हूँ ...

मैं परिंदों के जहां में उड़कर
उनके पंख चुराना चाहता हूँ
उनको अपने जहां में लाकर
अपनी तरह उड़ाना चाहता हूँ ।



मैं आसमानों की बस्ती में नया
एक घर बनाना चाहता हूँ
बादलों की क्यारियों में
एक वृक्ष लगाना चाहता हूँ ।

मैं  बेपरवाह गिरती बूंदों को
पकड़कर सताना चाहता हूँ
मैं इन्द्रधनुष के रंगों से
एक रंग बनाना चाहता हूँ ।

मैं चाहता हूँ की कुछ सितारे नए
पूनम के चाँद से सुन्दर दिखें
मैं चाहता हूँ की कुछ बाजू नए
कवि की कल्पना से अच्छा लिखें।

मैं चाहता हूँ की क्षितिज में कहीं
एक आसमान जमी सच में मिलें
मैं चाहता हूँ की दो गुलाब नए
किसी जीवन मरू में फिर से खिलें ।

मैं चाहता हूँ की सरिता इठलाकर
सरोवर से बेतहाशा लड़ सके
मैं चाहता हूँ की निर्जीव अमरत्व
एक बार चैन से मर सके ।

मैं अंधेरों को गले लगाकर
खुद को मिटाना चाहता हूँ
मैं रोशनी के जालों को
एक बार हटाना चाहता हूँ ।

मैं रूप का तिरस्कार कर आज
अपनी कुरूपता को हँसाना चाहता हूँ
मैं मुट्ठी को बंद करके उसमें
वो पुरानी रेत फंसाना चाहता हूँ ।

मैं चाहता हूँ की ख़ामोशी आज
बातों से बातों में जीत जाए
मैं चाहता हूँ की ये जीवन अब
सपनो ही सपनो में बीत जाए ।

मैं स्वयं को समझकर आज
समझ को समझाना चाहता हूँ
मैं कालकोठरी बन चुके वही पुराने
अपने घर जाना चाहता हूँ ।

मैं शब्दों की गुलाम बन चुके
पुराने प्रतिमान हटाना चाहता हूँ
जो मुझको तुमको बाँध दें एक हस्ती में 
उस हस्ती की हस्ती मिटाना चाहता हूँ । 

Sunday, July 14, 2013

Lost

Whisper of the ‘song blue’,
Melancholy in colorless hue
She is mirrored in a tiny view
She vanishes like the dew...

And I search for fragrance
Nowhere to be found
I close my eyes and listen
Yet! There is no sound...

But the sound of silence,
Creating a buzzing void
Oh! My miserable self,
I cannot avoid ...

The pain of serenity,
making a dent deep
The vice of divinity
 Breaking the crystal heap ...

And my emotions tumble
Listen! A faded rumble
Still searching for signs.. 
Will she ever mumble ?  

Monday, July 8, 2013

मानसून

बारिश की फुहार और मेरी खिड़की ,
फिर से बातें करते हैं 
बुलबुले से उठते यादों की छतरियों में ..
पुरजोर जिंदगी जीते मनचलों सी 
खिलखिला कर मरते हैं । 

वो देखो बन गयी है नदी एक ...
नाले की ओट में !
भीगता बच्चा एक कागज की किश्ती को ..
जहाज बनाकर चला रहा है 
दौड़ता पास उसके किनारे 
सपनो से सपने मिला रहा है । 

वो देखो बूँद मचलकर पत्र की गोद में गिरी है ..
पर कसमसा के बढ़ चली है अपने मायके ..
चिढाती पत्र को अठखेलियाँ करती 
पर ये क्या !
चुरा ले गयी बीच में उसे हवा निराली 
एक कसम तोड़ी थी ,
एक कसम निभा ली । 

दूर क्षितिज में देखो एकाकार होते ,
व्योम और धरा ..
झीना पर्दा बनता बादल छुपाने को ...
पर तेज कहाँ छुपता है भला ?
मेरी खिड़की के जाले की तरह ..
आधा जला , आधा खुला । 

ऊपर मेला लगा है गुब्बारों का ,
नाचते खेलते फव्वारों का ,
सात रंग की चरखी चल रही है 
बैठकर जिसमे इतरा रही है कोयल 
चिढा रही है चातक को ..
जो इन्तजार में स्वाति नक्षत्र के 
ब्रहमचारी बना बैठा है । 

और देखकर ये सब अब अधीर मन 
भीगने को व्याकुल है ,
चलो भीग कर आते हैं कुछ देर ..
बच्चे बन जाते हैं कुछ देर 
नहीं तो लाख भिगो लो तन को ...
माटी है वो तो भीग ही जाएगा 
पर !
मन के भीतर उस उसर बंजर जमीन पर ..
सूखा फिर से लौट के आएगा । 

Friday, June 28, 2013

चुनरी

सवेरे सवेरे चुनरी झटक कर 
बूंदों से जगा देती है ..
फिर कभी सोने लगूँ तो ..
चुनरी का तकिया बना देती है 
झल के पंखा कभी 
हवा की सी खुशबू देती है ...
तो माथे से कभी पसीना 
मेरे सोये में हठा देती है 
कभी चुनरी से खींच कर 
पास बुलाती है मुझे ...
कभी बाँध कर चुनरी आँखों में ..
मुझे गोल घुमा देती है ..
कभी करती है पर्दा ..
झीना सा चुनरी से ..
तो कभी चुनरी को ..
छत बना देती है
तो जो मुझे चुनरी से प्रेम है 
तो मेरी क्या खता है ?
तुम्हारी चुनरी मुझे तुमसे चुरा ले गयी ..
पूछो उससे !!
तुम्हारी चुनरी ही वजह है  । 

रंग

गली के पिछले मकान में 
सतरंगी रूमालो की उस दुकान में 
एक रंग खिलता है नया ..
न देखा न सुना 
न ख्वाबो में बुना 
वो रंगरेज बड़ा फरेबी है ..
बना के रंग ऐसे 
छिप गया है कहीं ..
या रंग में ही तो नहीं समाया है !
खुद को खुद में ही तो नहीं छिपाया है !
खेलने का मन किया था 
हाथ में भर लिया था ..
तो मेरी हथेली ही हो गया वो !
लगाने गया जो किसी को ..
तो उसकी सहेली ही हो गया वो !

अकेला

मैं  ..
अकेले शहर में ....
अकेले घर में  ...
अकेले दिल में  ...
अकेली धड़कन में 
तेरी तड़प को तड़प कर कभी 
महसूस करता हूँ  
स्पंदनो की छुहन 
बड़ी अजीब है ..
मुझे मेरे होने का एहसास दिलाती है 
जिंदगी जीने की आस जगाती है । 
अस्तित्व ही मेरा ..
तू है !
या तेरा मैं !
ये प्रश्न फिर पूछ कर उस अकेले दिल से ..
फिर अकेला मैं हो जाता हूँ यहाँ ..
अकेले दिल में ...
अकेले घर में ..
अकेले शहर में ..

Friday, May 31, 2013

खलबली

क्यूँ आज मचलता हिलोरों में दिल मेरा 
की लहर एक खेलती है मनचली सी 

भिगोती फिर वही बारिश की वो अदा 
अलसाई आँखे जैसे तेरी अधखुली सी 

रंग उड़ते हर तरफ सरोबार मैं होता मगर ..
डरता कहीं न सिमटे वो, खिली नन्ही कली सी । 

आज बस नहीं चल रहा , मैं बिन पिए मदहोश हूँ 
नैनो की साजिश है ये ढूंढते ,फिर वही गली सी 

झूमता मैं हूँ या समां ये पागलपन में !
फिजा गुलाबी है , हवा है संदली सी । 

तूफान अन्दर है बाहर भी, जाने कैसा निरीव सा 
उसके मन में भी काश हो ! थोड़ी बहुत खलबली सी !

सब्जी की दुकान

चांदनी सी बिखर गयी थी 
आज जो तुम आई थी 
पुरानी सब्जी की दुकान पर 
टूटे खंडहर से मकान पर 
मैं तो बस यूँ ही मस्ती में 
घूम रहा था ..
देख रहा था चाँद को भागते हुए 
साथ बादलों के झूम रहा था 
क्या पता था की जमीं पर चाँद आएगा 
रोशनी में जिसकी दिल 
ऐसे ही ठिठक जाएगा !
गुपचुप सा डरा हुआ ये दिल 
देख रहा था तुमको 
कनखियों से !
नजरे मिलाने की हिम्मत न थी 
कुछ बोल पाने की किस्मत न थी 
टमाटर सुर्ख लाल दिख रहे थे ..
तुम्हारे अक्स में सरोबार हो 
और मैं बार बार पगला उन्ही को बटोर रहा था !
की जैसे वो तुम ही हो ..
आवाज सुनने के लिए इंतज़ार में ..
बैठा भी रहा था ..
झिड़क सुनता सब्जी वाले की । 
और तुम्हारी मुस्कान ने जैसे 
समझ लिया था मुझे ..
बात भी कर ली थी 
सादगी से चुपचाप । 
और फिर चल पड़ी थी तुम 
उसी नजाकत से रास्ते पर 
और मैं वापिस खो गया सब्जियों के जहां में 
जहाँ अभी भी तुम्हारी खुशबू मौजूद थी । 

Monday, April 22, 2013

तमस

रात करती अठखेलियाँ ..
रूठती मनाती कभी ..
झुनझुना पकड़ा जीवन का ..
स्वप्न मंजरी दिखाती कभी । 

कभी मैं डर कर रात से ..
स्याह होते मौजूं में .
खुद की तस्वीर उकेरता हूँ 
डरता हूँ खुद से 
की अँधेरा इतना घना !
मुझको न लील जाये कहीं !

पर रौशनी भी तो बिखरी हुई है ..
नहलाती सी धरा को ..
जो शिशु बन शांत सौम्य सी 
नहा रही है दूधिया अमृत में 
विश्वास से। ..
की रात की कालिख 
में उज्ज्वला बनके निकलेगी । 
और खेलेगी कल गोद में ..
रौशनी के राजा के । 

चाँद तारे लड़ भी रहे हैं 
किसकी सुरम्यता है ?
जो चुनौती है ..
निशा के अस्तित्व के लिए !
जिसे बरगद की ओट में कभी 
तो कभी कोनों में अनजाने से 
छुपना पड़ रहा है  | 


और सिमट कर अपनी ही बाहों में ..
कनखियों से देखता हूँ 
गुजरते हुए रात को 
खामोश सा ! 
सन्नाटा चुभने लगे जैसे ..
ऐसे निस्तेज , निर्भाव, निर्मोही सा 
बिखरा पड़ा हूँ । 


मिलूँगा तो मैं भी कल रौशनी से  ..
पर मैं तो काला ही रहूँगा शायद !
मेरा रंग ही काला है ..
मेरा अंग ही काला है ..
ऐसा मैं सोचकर बहलाता हूँ 
खुद को ..
कुछ अनकही बातें छुपाता हूँ 
न मैं रात ही बन सका हूँ ..
न चाँद ही रह सका हूँ 
खुद कैसा था ?
इतिहास में कहीं मिलेगा ...
शायद ..
लेकिन फिर वही पतली लम्बी अँधेरी पगडण्डी है 
और फिर अमावस्या भी तो आएगी कभी 
मैं उलझना नहीं चाहता !
मैं भटकना नहीं चाहता !

आँखें खुली हैं तो रात ..
आँखें बंद हैं तो रात !
सब तो काला ही है ..
अँधेरा घना ..
हर ओर नाचता अट्टहास करता 
वो मतवाला ही है । 

मुझे स्वप्न चाहिए ..
जहां बनाकर सतरंगी जीवन ..
मैं रोशनी के साथ खेल सकूँ ..
और उजालों का शोर मुझे सोने न दे 
रात के अंधेरो में खोने न दे ..
मेरे सपने मेरी प्रियतमा बन जाएँ 
जिनको लपेट कर बाहों में जकड लूं 
की न वो सांस ले पाए 
न ही मैं !
और मुक्ति मिल जाये मुझको 
अपनी साँसों के साथ से ..
काली अंधियारी रात से । 

Friday, March 1, 2013

उसने जो कहा है .. मैंने जो सुना है ।

मेरा प्राण बिखर गया है ..
अंतहीन से जीवन में ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

सैलाबों के आशियाने में ..
पनाह ढूंढती एक नजर ..
छुप सी गयी है ..
जब से 
उसने जो कहा है ..
मैंने जो सुना है ।

मुझे कभी इल्म नहीं था तूफानों का ..
मैं गर्दिश में छुपा 
रसातल में गया 
उस झोंके से ..
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

मोल करने लगा वो प्रीत का ..
जो गुनगुनाता था जीवन ..
अंत हुआ उस गीत का 
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

मेरी सांस उसकी न रही ..
न मेरी ही बची ..
सुदामा बन गया मै ..
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

जिंदगी को जैसे जिया वो ..
बन के सर्कस का नट ..
मुझे ही चिढ़ा रहा है 
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

मेरी कमजोरी को मेरी फितरत समझ के ..
उड़ा रहा है मेरी वफ़ा के छल्ले ..
और मिट रहा हूँ मैं ..
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

मुझे मोहब्बत की ख्वाहिश नहीं ..
पर नफरत के गुल ..
भी सूखे गिर पड़े है ..
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

खुद से ज्यादा समझने का ऐतबार जिसपर था ..
वो बेकार पड़े धागों में ..
उलझ गया है ..
जब से ..
उसने जो कहा है 
मैंने जो सुना है ।

मेरे गुनाहों का बयाना देकर ..
मुकर गया वो ये कहकर ..
की फैसला हो चुका है ..
जब से ..
उसने जो कहा है ..
मैंने जो सुना है ।

गिरने से तो डर कभी न लगा ..
हाथ झटक कर ..
अकेले !!
चलने की सौगात मिली ..
जब से ..
उसने जो कहा है ..
मैंने जो सुना है ।

साये को निगल लिया अँधेरे ने ..
मैं नग्न हो गया ..
खुद को छिपाए भटकता हूँ ..
जब से ..
उसने जो कहा है ..
मैंने जो सुना है ।

उसके जाने के बाद अब सोचा  कि ..
खुदा क्या है ?
ढूढता हूँ तबसे ..
जब से ..
उसने जो कहा है ..
मैंने जो सुना है ।

Tuesday, February 12, 2013

कैसा हो इस्कूल हमारा


मेरे भारत को स्वप्न मंजरी,
में जब तरु सम करता हूँ ।
तो मै शाखे पत्ते गिनता ..
टूटन को कम करता हूँ ।

विचार कौंधता मन में ये की 
चट्टानों सा तरु हो उस दिन ..
जड़ का फिर मैं मोल समझता 
सूखा मृत सा मरू हो जिस दिन ।

जड़ आधार की बातों में ..
ये प्रश्न उभरता कौन बनेगा ?
मिट्टी कीचड दलदल में अब 
कौन रहेगा कौन सनेगा ?

बच्चे दिखते मुझको फिर कुछ ..
बस्ता टाँगे चलते फिरते ..
गिरते पड़ते हँसते रोते ..
खाते पीते आते जाते ।

आधार का भान होता फिर मुझको 
कौन बनेगा नया सितारा !
अगला प्रश्न कौंधता दिल में 
कैसा हो इस्कूल हमारा ?

पेंसिल हँसे रबड़ मुस्काए ..
बस्ता सरपट दौड़ा जाए .
अंक तुनककर नाच दिखाएं 
ऐसा हो इस्कूल हमारा !

सपनों का नव जन्म जहां हो 
गीता का शुभ कर्म जहां हो 
भावों का मधुरिम मर्म जहाँ हो 
ऐसा हो इस्कूल हमारा ।

क्षितिज लालिमा का संगी बन 
इन्द्रधनुष  का नाच दिखाए 
बाल कृष्ण अठखेली करके ..
मक्खन के संग रास रचाए ।

बीज जहां छितराये जाएँ ..
मेघ जहां इतराए जायें ..
अंजुलि में भर खाद जहां पर ..
नन्हे मुन्हे लाते जाएँ ।

दिल और पेट के सौदे में ..
जीत जहां दोनों की हो ।
कक्षाएं वो स्वर्ग बने ..
प्रीत जहां दोनों की हो ।

शिक्षक गुरु का अर्थ समझकर ..
आदर्शों की वाह करे ..
पर्याय बने नैतिकता का  ..
कर्तव्यों का निर्वाह करे ।

सिर्फ किताबें जहां नहीं हों ..
जीवन का अध्याय मिले 
उन फूलों को उन कलियों को ..
सच्चाई से  न्याय मिले ।

जहाँ बिताकर अपना जीवन ..
मानवता को तेज मिले ..
जहां खेलकर नन्हो को वो 
आदर्शों की सेज मिले ।

जहाँ शब्द बनकर वीणा ..
गुरु के अधरों से निकलें ..
जहाँ परिश्रम की बूँदें ..
सबके माथे पर फिसलें ।

जहाँ बने गांधी टैगोर ..
न्यूटन ग़ालिब चारो ओर ..
अंधेरों में जहां हो भोर ..
ऐसा हो इस्कूल हमारा ।

इस इस्कूल के कौन हैं धारक ?
हम सब हैं ..
इस इस्कूल के कौन हैं तारक ?
हम सब हैं ..

हम सब मिलकर आगे आयें ..
अंधेरों  में दीप जलायें ..
अपना अपना फर्ज निभाएं 
खुद को न्योछावर कर जाएँ ।

स्वयं विकास चेतन बन जाएँ ..
शुद्ध दुग्ध जैसे  छन जाएँ 
बदी के सम्मुख टकराएं हम 
अन्याय के आगे फिर ठन जाएँ ।

तभी एक दिन कह सकते हैं 
ऐसा है आकाश सितारा ।
तभी एक दिन कह सकते हैं
मक्का और प्रयाग हमारा ।
तभी एक दिन कह सकते हैं 
सुन्दर होगा अब ये नजारा ।   

तभी एक दिन जब कोई पूछे 
कैसा है इस्कूल तुम्हारा 
गर्व से छाती ताने बोलें  ..
ऐसा है इस्कूल हमारा ।  
ऐसा है इस्कूल हमारा । 

Friday, January 25, 2013

गणतंत्र


मेरे भारत की हंसी या रुदन का..
मंत्र क्या है ?
दौड़ता, हिचकोलता, रुकता हुआ ..
वो यन्त्र क्या है?
देखती जिसको स्वप्न मंजरी टकटकी सी ..
वो कराहता पुकारता गणतंत्र क्या है?

वो राजा बन गए हैं आज भी लोगों के ..
गणतंत्र को तोड़ कर 
मरोड़ कर ..
उस किताब की जिल्द को देखा गया ..
पन्ने अभागे छोड़ कर ।

अधिकारों की बात रह गयी है ..
चंद पोथियों की बानी ..
अज्ञानी ज्ञानी बने हैं ..
ज्ञानी जैसे अज्ञानी ।

बिक रहा गणतंत्र ठेलों पर ..
लग रही बोली खेलों पर ..
दरिद्र नारायण रो रहा कोनो में ..
रोटी बची नहीं अभागे दोनो में ।

बंट गया भारत कई दीवारों में  ..
धर्म, जाति, पैसो के हथियारों में ..
जुदा हो गया भारत इंडिया से ..
सेंध लग गयी भारत के आधारों में ।


ये समय है बात समझने का ..
मूल्यों को परखने का ..
संविधान पर धूल जम गयी  ..
उस धूल को फिर से झड़कने का ।

अधिकारों का मान करो ..
कर्तव्यों का संज्ञान करो ..
विश्वास मर गया जो दिल का ..
उसका फिर आह्वान करो ।

अपने मत की कीमत जानो ..
गलत सही को तुम पहचानो ..
राष्ट्र निर्माण की धुरी तुम ही हो ..
केंद्र तुम्ही हो यह भी मानो ।

गणतंत्र गणों का तंत्र है समझो ..
कौन है गण ?
वो तुम ही हो 
वो मैं भी हूँ , 
वो वो भी हैं ..
वो हम भी हैं ।
वो चपल सूर्य ..
वो तम भी हैं ।

तो तम से क्या हम डर जाएँ ?
क्या चुप्पी साधे मर जाएँ ?
या बाँध कफ़न निकलें सर पे ..
और कुछ मतवाला कर जायें ।

सरकार वो नहीं तुम सब हो ..
प्रश्न यही है कब कब हो ?
निरीह मनुज हो आदिम तुम या ..
ज्वलंत धधकता नभ नभ हो ।

गणतंत्र को सफल बनाना है ..
तो सबको साथ निभाना है ..
एक सपना था अलबेलों का ..
एक सपना नया सजाना है ।

Wednesday, January 16, 2013

वजूद


मैं खोजने निकली अपना वजूद ज़माने में ..
मेरी तलाश सिमट कर अधूरी रह गयी ।

मैंने बोलना भी चाहा, कभी चीखना भी चाहा ..
ग़लतफहमी में ख़ामोशी, कुछ ज्यादा कह गयी ।

मैंने मोहब्बतों के लिए इक बार जीवन लुटा दिया ..
उनको लगा कि बेचारी है ये, सितम सह गयी ।

मैं क़दम उठा के बेख़ौफ़ चलने लगी रास्तों पर ..
हडकंप मच गया कि देखो झील बह गयी ।

जकड़ने के लिये कभी बुत तो कभी ख़ुदा बना दिया ..
मैंने नजर उठाई, तो मंदिर-ओ-मस्जिद ढह गयी । 

रूबरू


तूफ़ान तो आते रहे हैं सदियों से ..
बेखबर ..
चट्टानों का वजूद आज भी है ..

बजा ले जमाना चाहे दुदुम्भी कोई !
देख ले ...
हौसलों से सजा अपना साज भी है ।

जहर का सैलाब छोड़ा है जमीं पर
ठीक है ..
जहर को धर निचोड़े वो जबर बाज भी है ।

जख्म देते रहो हमें परवाह नहीं ..
पर याद रहे ... 
वो एक बार गिरती गाज भी है ।

फितरते कायर नहीं जो डर जाएँ धमकियों से ..
बस ...
तेरी आँखों के पानी की हमें लाज भी है ।

मौज आएगी तो फ़ना कर देंगे वजूद को तेरे ..
जी हाँ ..
अपनी इस अदा पर हमको नाज भी है ।