Friday, June 28, 2013

रंग

गली के पिछले मकान में 
सतरंगी रूमालो की उस दुकान में 
एक रंग खिलता है नया ..
न देखा न सुना 
न ख्वाबो में बुना 
वो रंगरेज बड़ा फरेबी है ..
बना के रंग ऐसे 
छिप गया है कहीं ..
या रंग में ही तो नहीं समाया है !
खुद को खुद में ही तो नहीं छिपाया है !
खेलने का मन किया था 
हाथ में भर लिया था ..
तो मेरी हथेली ही हो गया वो !
लगाने गया जो किसी को ..
तो उसकी सहेली ही हो गया वो !

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