सवेरे सवेरे चुनरी झटक कर
बूंदों से जगा देती है ..
फिर कभी सोने लगूँ तो ..
चुनरी का तकिया बना देती है
झल के पंखा कभी
हवा की सी खुशबू देती है ...
तो माथे से कभी पसीना
मेरे सोये में हठा देती है
कभी चुनरी से खींच कर
पास बुलाती है मुझे ...
कभी बाँध कर चुनरी आँखों में ..
मुझे गोल घुमा देती है ..
कभी करती है पर्दा ..
झीना सा चुनरी से ..
तो कभी चुनरी को ..
छत बना देती है
तो जो मुझे चुनरी से प्रेम है
तो मेरी क्या खता है ?
तुम्हारी चुनरी मुझे तुमसे चुरा ले गयी ..
पूछो उससे !!
तुम्हारी चुनरी ही वजह है ।
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