Monday, July 8, 2013

मानसून

बारिश की फुहार और मेरी खिड़की ,
फिर से बातें करते हैं 
बुलबुले से उठते यादों की छतरियों में ..
पुरजोर जिंदगी जीते मनचलों सी 
खिलखिला कर मरते हैं । 

वो देखो बन गयी है नदी एक ...
नाले की ओट में !
भीगता बच्चा एक कागज की किश्ती को ..
जहाज बनाकर चला रहा है 
दौड़ता पास उसके किनारे 
सपनो से सपने मिला रहा है । 

वो देखो बूँद मचलकर पत्र की गोद में गिरी है ..
पर कसमसा के बढ़ चली है अपने मायके ..
चिढाती पत्र को अठखेलियाँ करती 
पर ये क्या !
चुरा ले गयी बीच में उसे हवा निराली 
एक कसम तोड़ी थी ,
एक कसम निभा ली । 

दूर क्षितिज में देखो एकाकार होते ,
व्योम और धरा ..
झीना पर्दा बनता बादल छुपाने को ...
पर तेज कहाँ छुपता है भला ?
मेरी खिड़की के जाले की तरह ..
आधा जला , आधा खुला । 

ऊपर मेला लगा है गुब्बारों का ,
नाचते खेलते फव्वारों का ,
सात रंग की चरखी चल रही है 
बैठकर जिसमे इतरा रही है कोयल 
चिढा रही है चातक को ..
जो इन्तजार में स्वाति नक्षत्र के 
ब्रहमचारी बना बैठा है । 

और देखकर ये सब अब अधीर मन 
भीगने को व्याकुल है ,
चलो भीग कर आते हैं कुछ देर ..
बच्चे बन जाते हैं कुछ देर 
नहीं तो लाख भिगो लो तन को ...
माटी है वो तो भीग ही जाएगा 
पर !
मन के भीतर उस उसर बंजर जमीन पर ..
सूखा फिर से लौट के आएगा । 

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