बारिश की फुहार और मेरी खिड़की ,
फिर से बातें करते हैं
बुलबुले से उठते यादों की छतरियों में ..
पुरजोर जिंदगी जीते मनचलों सी
खिलखिला कर मरते हैं ।
वो देखो बन गयी है नदी एक ...
नाले की ओट में !
भीगता बच्चा एक कागज की किश्ती को ..
जहाज बनाकर चला रहा है
दौड़ता पास उसके किनारे
सपनो से सपने मिला रहा है ।
वो देखो बूँद मचलकर पत्र की गोद में गिरी है ..
पर कसमसा के बढ़ चली है अपने मायके ..
चिढाती पत्र को अठखेलियाँ करती
पर ये क्या !
चुरा ले गयी बीच में उसे हवा निराली
एक कसम तोड़ी थी ,
एक कसम निभा ली ।
दूर क्षितिज में देखो एकाकार होते ,
व्योम और धरा ..
झीना पर्दा बनता बादल छुपाने को ...
पर तेज कहाँ छुपता है भला ?
मेरी खिड़की के जाले की तरह ..
आधा जला , आधा खुला ।
ऊपर मेला लगा है गुब्बारों का ,
नाचते खेलते फव्वारों का ,
सात रंग की चरखी चल रही है
बैठकर जिसमे इतरा रही है कोयल
चिढा रही है चातक को ..
जो इन्तजार में स्वाति नक्षत्र के
ब्रहमचारी बना बैठा है ।
और देखकर ये सब अब अधीर मन
भीगने को व्याकुल है ,
चलो भीग कर आते हैं कुछ देर ..
बच्चे बन जाते हैं कुछ देर
नहीं तो लाख भिगो लो तन को ...
माटी है वो तो भीग ही जाएगा
पर !
मन के भीतर उस उसर बंजर जमीन पर ..
सूखा फिर से लौट के आएगा ।
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