Friday, November 12, 2010

बुत

उस देश में ...
कुछ छिटकी हुई रोशनी थी ...
और कुछ बुत थे अनजाने से ..
हर बुत में जैसे जान थी .....
और नूर बरसता था |

मैं आगे बढा छूने उसे..
क्यूंकि वो बोलता था ..
वो ठिठक गया ..
मैं ठिठक गया ..
वो डर रहा था ..
मैं भी |

आँखें उसकी अजीब थी ..
अलसाई सी ..लेकिन स्फटिक ..
वो देख सकता था खुद को ..
गर्व से दर्प से ..
मैंने भी कोशिश की ..
पर पाप दिखा ..
मैं रुक गया ..
अपने देश में |

Saturday, September 4, 2010

मृत्युंजय

मृत्युंजय नाम से ,
दिव्य पुण्य धाम से,
वीर वो चल उठा ,
वक्र सा पिघल उठा |
सिंह की दहाड़ थी ,
कंटकों की आड़ थी |
सर्प के उस दंश सा ..
विश्व के विध्वंश सा ..
आभास यूँ होने लगा ...
दर्प भी खोने लगा ..
मृत्यु की एक सेज में ..
खडग के उस तेज में ...
नेपथ्य से जो आ रहा था ..
नशा ऐसा ला रहा था ..
मद से जो युक्त था ..
शौर्य से संयुक्त था ..
डोलता सा , बोलता सा...
प्राण को यूँ तोलता सा ..
ज्यूँ पौरुषेय दंभ हो ...
पल में यूँ अचम्भ हो ...
शत्रु भय से गल उठा ..
गिरि भी पिघल उठा ...
हाहाकार मच गया ...
बस अस्तित्व ही बच गया ...
उस अस्तित्व को साथ ले ...
चल पड़ा है वीर वो ...
एक और दुनिया बसने ..
एक और दुनिया मिटाने |

Wednesday, August 25, 2010

जाम का सुरूर ....

लो शुरू हो गयी एक और होली खून की ...
मैं सोचता रहा कि जहां जुड़ने लगा है !

एक तीर जो करने वाला था निशाने वार ..
कमबख्त ! अपनी राह से मुड़ने लगा है ..

दो बूढ़ी आँखें देखती हैं राह आज भी ...
कौन उन्हें बताये कि बेटा अब उड़ने लगा है !

जान कुर्बान कर जिस यार पर वार दिया सब कुछ ...
वो यार देखो आज ! मुझसे ही कुढने लगा है !