वो अनजाना सा रहता है फूस के मकान में ..
गरीबी में कोई दीवाना नहीं होता ...
आज भी अंधेरों में बीतती है जिंदगी उसकी ..
कोई शमा नहीं होती ..कोई परवाना नहीं होता ..
कोई नहीं बाटता उसकी जोह घर पर आजकल ..
फसल की चिंता में घर जाना नहीं होता ..
जिन घरों में हड्डियां और पीलापन रहा करते हैं ..
उन घरों में किसी का शर्माना नहीं होता ..
बारात गुजरने के बाद पहुँचता है जश्ने महफ़िल में कोई ..
जूठन उठाने को ..उसके घर में दाना नहीं होता ..
कुछ फेंके टुकड़ों को इकठ्ठा कर खुश होता है फिर ..
पता है उसको बच्चों के पास खाना नहीं होता ..
हर रोज उठता है वो जीने की आस लेकर ...
कोई वादा नहीं होता ..कुछ निभाना नहीं होता
सावन में बरसात की आस में जागती दो आँखें ..बालियों के लिए ..
वहाँ कुछ सुहाना नहीं होता ..किसी को कुछ गाना नहीं होता
किसी की लाश को रुखसत करता हुजूम ए आदमजात ...
किसी की लाश के लिए कोई जमाना नहीं होता ..
सपनो की दुनिया में रिझते रिझते खीज गया है वो ..
अब उसे किसी चिराग को पाना नहीं होता ..
कभी ऐसे ही कोई पंक्तियाँ लिख के वाह ले लेता है ..
उसके आंसुओं का क्या ? कोई ठिकाना नहीं होता ..
Friday, August 5, 2011
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1 comment:
वाह वैभव भैया.. मज़ा आ गया..
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