Saturday, November 9, 2019

जिंदगी













पत्थर बनाने की कोशिश बहुत की ज़ालिम ने
मैं दरिया के पास था ,
 बस पिघल गया !

यूँ तो रोक लेता था खुद को मारकर हर शाम
वो शाम गुलाबी थी ,
 मन मचल गया !

मुझे देवता बनाने का शौक था अय्यारों को
महफ़िल सजी रह गयी ,
मैं निकल गया !

मैं चट्टानों के मानिंद खड़ा रहा तूफानों में
किसी की चुनरी लहरायी ,
 बस बिखर गया !

तारीफों के बोझ में दबा हुआ जिस्म मेरा 
किसी ने गाली दी ,
यूँ ही निखर गया |

चलता रहा अंधेरों में बेख़ौफ़ गाते हुये
उस गली में बहुत उजाला था,
 मैं सिहर गया |

हथियारों के साथ चलता रहा भीड़ में
मुझे काज़ी बना दिया
मैं सुधर गया |

लड़ पड़े थे लाश को लेकर मज़हब दोनों
वो कबीरा था
पता नहीं किधर गया |

दस रास्तों में बस एक रास्ता अनजान था
मुझे खुद को ढूँढना था
मैं उधर गया |

1 comment:

kungfu panda said...

excellent sir ... ek saalgirah pe likhiye