पत्थर बनाने की कोशिश बहुत की ज़ालिम ने
मैं दरिया के पास था ,
बस पिघल गया !
यूँ तो रोक लेता था खुद को मारकर हर शाम
वो शाम गुलाबी थी ,
मन मचल गया !
मुझे देवता बनाने का शौक था अय्यारों को
महफ़िल सजी रह गयी ,
मैं निकल गया !
मैं चट्टानों के मानिंद खड़ा रहा तूफानों में
किसी की चुनरी लहरायी ,
बस बिखर गया !
तारीफों के बोझ में दबा हुआ जिस्म मेरा
किसी ने गाली दी ,
यूँ ही निखर गया |
चलता रहा अंधेरों में बेख़ौफ़ गाते हुये
उस गली में बहुत उजाला था,
मैं सिहर गया |
हथियारों के साथ चलता रहा भीड़ में
मुझे काज़ी बना दिया
मैं सुधर गया |
लड़ पड़े थे लाश को लेकर मज़हब दोनों
वो कबीरा था
पता नहीं किधर गया |
दस रास्तों में बस एक रास्ता अनजान था
मुझे खुद को ढूँढना था
मैं उधर गया |
1 comment:
excellent sir ... ek saalgirah pe likhiye
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