Monday, January 16, 2017

सभ्यता और समय 















समय की चाल पर खेलता
खंडहरों का हुजूम
और खंडहर हो जाता है
देखता अगर खुद को आईने में
बेसबर हो जाता है !

अंतहीन जीवन की कल्पना
स्वयंभू का अस्तित्व खोजता
मानव गढ़ता है राजमहल
होती है चहल पहल
चंद पलों की ...
और पल अगला निगल जाता है
पुराने पल को !
ठिठकती सभ्यतायें देखती
इस सतत छल को !

अदना सा मानव देखता
खुद को विजयी होते
सागर , पर्वत , व्योम
कितने छोटे लगते !
लेकिन भान नहीं है
धरती के गर्भ का ?
या फिर भान अधिक है
स्वयं के दर्प का ?
लावा निकलता कभी गर्भ से
कभी अपने अंदर छुपे दर्प से
और लुहलुहान होकर आखिर
बदल जाती है सभ्यता !
जिसे देखने आती नयी सभ्यता
अपना नया दर्प लेके !

ये पहिया चलता जाता है
घूम कर फिर वहीँ वहीँ आता है
बीच में कुछ अस्तित्वहीन धूलि कण
कर देते हैं अपने काल्पनिक युग का निर्माण
जिसे अगले चक्र में पहिये के नीचे आना है
जिसे अपना वजूद खुद ही मिटाना है !!


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