रंग और लहू में अन्तर नही बचा है ...
कोई भाल पर लगा है ..
कोई भाल पर सजा है ...
एक एक रक्त बूँद छूटती जा रही है ...
और वो कहते हैं, होली आ रही है !!
होली तो था प्रेम का सद्भाव का पुलिंदा ...
धर्म जाति भेद में रहा न भाव जिन्दा ...
आज गले मिलने में भी भय सोच ला रही है ...
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
दहन था उस होलिका का , बदी की जो प्रतीक थी ...
जल में पाप धुलते थे तब ..होली की ये सीख थी ...
आज हाय ! अग्नि ये क्यूँ प्रहलाद को जला रही है ... ?
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
कुछ गीत हो रहे हैं ? या ये मेरा भ्रम है ...
क्रंदन हो रहा चहुँ ओर ..ये तो सिर्फ़ तम है ...
आशा भी मर चुकी है अब जिंदगी सता रही है ...
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
Monday, March 9, 2009
Wednesday, March 4, 2009
हवा
कल सुबह जागने के बाद अलसाई आँखें लिए जैसे ही मैंने दरवाजा खोला सामने किसी को खडा पाया | वो टुकुर टुकुर मुझे निहार रही थी | मैंने आँखें भींच कर उससे विलग होने का प्रयास किया लेकिन मन से उसे हटा नहीं पाया, एहसास से उसे मिटा नहीं पाया | हार कर मैंने आँखें खोली और तभी मुझे ध्यान आया की इसे तो मैंने कल भी देखा है ..परसों भी ...उससे पहले भी ... | पहली बात उसे कब देखा ये सोच नहीं पाया ! वो अभी भी मुस्कुरा रही थी | उसकी आँखों में अजीब सा सुकून था | अचानक उसने मुझे धीरे से छू लिया | मैं चौंक गया ..घबरा गया ..लेकिन अगले ही पल इक कोमल स्पर्श का शीतल अनुभव हुआ | एसा लगा जैसे असंख्य पंख बिना मेरी इच्छा के पूरी शिद्दत के साथ मनुहार कर रहे हैं और मैं मदहोश हो बस उस दिव्य तरंगिनी में बहता चला जा रहा हूँ | डरते हुए मैंने भी उसकी ओर हाथ बढाया लेकिन उसे छू न पाया बस इक स्वर्गिक आनंद का अभी भी अनुभव हो रहा था |
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