Thursday, September 10, 2009

भाव

जा रहा है पंछी एक ,
बनाने अपने घरौंदे अनेक ...
उजला सा ..नन्हा सा ...
भीड़ में तन्हा सा ..
स्वप्न में खोया ...
दिल में रोया ..
नीर तृष्णा का आभास ..
मंजिल की प्यास ...
मन में लिए ..
तन में लिए ...
उड़ चला ..आशियाने में ...
अनजाने से ठिकाने में ..
दूर उस ठूंठ से ...हुआ जैसे ...
पता नहीं कैसे ...
मुड़ा पीछे ..और ..
कुछ यादें ..कुछ बातें ...
कुछ हंसी ..कुछ ठट्टे ..
कुछ रूठना ..कुछ एंठना ..
कुछ सताना ...कुछ मनाना ..
कुछ बताना ..कुछ छिपाना ..
दो साल ऐसे बिताना ...
जिसमें...
जीवन की लचक ...
सर्वस्व की खनक ...
आनंद की ठनक ..
मस्ती की छनक ..
पागल सी सनक ..
उजला सा कनक ...
प्यारी सी भनक ..
अपने अन्दर समाया हुआ ...
वो तरु विस्मित ...
नेत्र खोले हंस रहा है ..
रो रहा है ..
नव बीज कल्पित ..
बो रहा है ...
क्यूंकि यही नियम है ..
प्रकृति का ..जिसमें ..
सुन्दर आकृति को ..
बिगड़ना पड़ता है ...
नए सृजन नयी रचना के लिए ...
जो हमेशा ज्यादा सुन्दर होती है |
ऐसे ही तो जीवन चलता है ..
ऐसे ही तो सूर्य उगता है ...
निशा की गोद में आत्मसमर्पण कर ...
प्रातः पुनः लालिमा बिखेरने के लिए |
तरु से दूर जाने पर मन उदास है ...
और उससे भी ज्यादा ..
कुछ खग विहग हैं ..
मेरे प्रतिबिम्ब ...
जिनके साथ खेला ..
जीवन का मेला ..
हंसा रोया गाया पाया ..
स्नेह ..प्रेम ..और अर्पण मैं ..
कुछ भी न कर पाया ..!
लेकिन भाव से ...कामना है ..
सुखद सौंदर्य की ...
सबके जीवन में ...
हंसी ठिठोली ..का ...
साम्राज्य हो ...|
फूलता रहे तरु और साथ उसके ...
निवासी भी ..
मिलने की आस लिए ..
एक पल ठिठकता ...
हँसता रोता ...
फिर जा रहा है ...
वो विहग...
एक नया तरु खोजने ..
जिसकी शाखों पर बैठकर ...
वो पुराने तरु को याद कर सके |

~वैभव