Monday, April 22, 2013

तमस

रात करती अठखेलियाँ ..
रूठती मनाती कभी ..
झुनझुना पकड़ा जीवन का ..
स्वप्न मंजरी दिखाती कभी । 

कभी मैं डर कर रात से ..
स्याह होते मौजूं में .
खुद की तस्वीर उकेरता हूँ 
डरता हूँ खुद से 
की अँधेरा इतना घना !
मुझको न लील जाये कहीं !

पर रौशनी भी तो बिखरी हुई है ..
नहलाती सी धरा को ..
जो शिशु बन शांत सौम्य सी 
नहा रही है दूधिया अमृत में 
विश्वास से। ..
की रात की कालिख 
में उज्ज्वला बनके निकलेगी । 
और खेलेगी कल गोद में ..
रौशनी के राजा के । 

चाँद तारे लड़ भी रहे हैं 
किसकी सुरम्यता है ?
जो चुनौती है ..
निशा के अस्तित्व के लिए !
जिसे बरगद की ओट में कभी 
तो कभी कोनों में अनजाने से 
छुपना पड़ रहा है  | 


और सिमट कर अपनी ही बाहों में ..
कनखियों से देखता हूँ 
गुजरते हुए रात को 
खामोश सा ! 
सन्नाटा चुभने लगे जैसे ..
ऐसे निस्तेज , निर्भाव, निर्मोही सा 
बिखरा पड़ा हूँ । 


मिलूँगा तो मैं भी कल रौशनी से  ..
पर मैं तो काला ही रहूँगा शायद !
मेरा रंग ही काला है ..
मेरा अंग ही काला है ..
ऐसा मैं सोचकर बहलाता हूँ 
खुद को ..
कुछ अनकही बातें छुपाता हूँ 
न मैं रात ही बन सका हूँ ..
न चाँद ही रह सका हूँ 
खुद कैसा था ?
इतिहास में कहीं मिलेगा ...
शायद ..
लेकिन फिर वही पतली लम्बी अँधेरी पगडण्डी है 
और फिर अमावस्या भी तो आएगी कभी 
मैं उलझना नहीं चाहता !
मैं भटकना नहीं चाहता !

आँखें खुली हैं तो रात ..
आँखें बंद हैं तो रात !
सब तो काला ही है ..
अँधेरा घना ..
हर ओर नाचता अट्टहास करता 
वो मतवाला ही है । 

मुझे स्वप्न चाहिए ..
जहां बनाकर सतरंगी जीवन ..
मैं रोशनी के साथ खेल सकूँ ..
और उजालों का शोर मुझे सोने न दे 
रात के अंधेरो में खोने न दे ..
मेरे सपने मेरी प्रियतमा बन जाएँ 
जिनको लपेट कर बाहों में जकड लूं 
की न वो सांस ले पाए 
न ही मैं !
और मुक्ति मिल जाये मुझको 
अपनी साँसों के साथ से ..
काली अंधियारी रात से ।