Sunday, February 10, 2019

चीख़

चुप रहने की कोशिश है हर तरफ़ 
भीड़ पीछे हट रही है 
वो अकेला आगे बढ़ रहा है
उसकी जीभ कट रही है 

हामी भरने की क़वायद में 
इंसान गायब हो रहे हैं 
कंकालों से भरा है तालाब
मेढक साहब हो रहे हैं 

सुबह सवेरे चल पड़ती है मशीन 
हर पुर्जा जोरदार आवाज करता है 
आवाज़ शायद सुन ले खरीदने वाला
सोचकर वो हर रात मरता है 

अकेलेपन से डरता है खौफजदा हो 
भीड़ के साथ दौड़ने लगता है 
दोनों हाथों से पकड़ कर हड्डी रीढ़ की
पूरी शिद्दत से मोड़ने लगता है 

पिघल जाता है लोहा लम्हों में 
ढलकर औजार बन जाता है 
काट देता है दूसरे लोहे को 
बेरहम हथियार बन जाता है 

बेइंतहां डर को सीने में लिये 
सिमट कर सोने लगा है 
हंसता मुस्कुराता दिन बिताता 
अंधेरों में रोने लगा है 

जीभ की परवाह हो गयी उसे 
जिगर की खबर नहीं रही है 
वैसे भी इस उत्तराधुनिक युग मे
ये भी सही है , वो भी सही है 

भूल गया कि केवल आँखे भी 
काफ़ी हैं जी भर बोलने के लिये
भूल गया कि केवल साँसें भी 
काफी हैं किसी के डोलने के लिये 

भूल गया कि आवाज उठाने के लिये
दूसरे पाले में झपट्टा मारना जरूरी है
जीत की गुंजाइश कहीं कभी बाकी रहे 
इसलिये बेख़ौफ़ हो हारना जरूरी है 

याद उसको आ गया जो ये नज़ारा 
टूट के चमकेगा फ़िर से वो सितारा
जीभ लंबी हो के रस्सी बन सकेगी 
फांद बन जायेगा कोमल ये नजारा
थरथरा जायेंगे हुक्मरानों के घर 
साथ उसके तुमने गर जो दहाड़ा 
एक उसकी लाश पर ही बन सकेगा 
हर पहर आज़ाद बागी घर तुम्हारा 
हर पहर आज़ाद बागी घर तुम्हारा