घर के अंदर आग जल रही है
भरी हुयी केतली उबल रही है
केतली में पानी है
पानी में उठते बुलबुले
बुलबुलों के अंदर हवा
मैं फिर से शून्यता में खो गया !
बुलबुलों के नीचे पानी उबल रहा है
करोड़ों जिंदगियाँ हैं !
जीवन ऐसे ही चल रहा है
पानी में देखा तो मैं ही नजर आया
चम्मच उसमे डाली तो खुद को ही हिलाया
तो क्या था पानी
जब सब मैं ही हूँ ,
तो बाकी केवल भोथरी कहानी ?
ख़ुद को ढूंढता मैं
यहाँ भी हूँ, वहाँ भी
सुपरइंपोज़्ड और इंटेंगल्ड !
नीचे जल रही है आग
नीली भी है , पीली भी
लाल भी हो जाती है कभी कभी मेरी तरह
जब तापमान ज्यादा होता है
राजा से हुनरमंद प्यादा होता है
और तब भी अगर मैं छू के
खींच लूँ अपने हाथ
तो जलूँगा नहीं जलाऊंगा !
पर जो दिया आग का साथ
तो आग ही बन जाऊँगा
अजीब दुविधा है
तप जाऊं ? बन जाऊं ? बिखर जाऊं ?
इस क्वाज़ी स्टेट में कैसे निखर जाऊँ !
केतली का ढक्कन उठने लगा है
हवा ठोस को उठा रही है
कभी कभी होता है जिंदगी में ऐसा
इसलिये मैं हवा को कम नहीं आँकता
और न ही आंकना चाहिये ढ़क्कन को
जो आज दबा हुआ है कल उठेगा
और उखाड़ फेंकेगा सबको
भले ही वो हवा हो और तुम ठोस
सिफ़र ही अक्सर उड़ाता है होश
और माना उड़ गया वो हवा में
हवा को हवा से मिलाता ,
अट्टहास करता गर्जना सुनाता
निर्गुण - निराकरार - निर्भय शून्य !
पानी के बाहर केतली कंपकपा रही है
काँप तो मैं भी रहा हूँ
सर्दी भी है और गर्मी भी
फिर और ध्यान से देखा तो
धातु नजर आयी , अणु दिखे
परमाणु दिखे ,
अब इलेक्ट्रान , प्रोटोन दिख रहे हैं
और अंदर देखता हूँ तो कुछ नहीं दिखता है
कुछ है तो सही पर बनता बिगड़ता है
पहचान करना मुश्किल है
बिलकुल मेरी तरह !
तो क्या मैं क़्वांटम बन चुका हूँ ?