मैं घूमता सा बढ़ रहा था ...
झूमता सा चल रहा था ...
मरीचिका थी छल गई ...
वो रेत थी ..फिसल गई |
चमचमा रही थी वो भी ...
खिलखिला रही थी वो भी ...
सोच थी जल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
ख़ुद में धंसा लिया था मुझको ...
अपना बना लिया था मुझको ...
फ़िर चाल क्यूँ वो चल गई ?
वो रेत थी फिसल गई |
पादुकायें त्याग कर भागा ...
नीर तृष्णा में रात भर जागा ...
वो वाष्प बन निकल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
मैं निढाल हो गिर पड़ा था ...
प्राण त्याग मृत पड़ा था ...
वो सर्प बन निगल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
Monday, February 9, 2009
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1 comment:
wo sarp ban nigal gayi..
waahh! sundar
bahut badhiya
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