Wednesday, August 26, 2009

पत्र का प्रेम

ओस बिंदु की अंगडाई देख ..
पत्र स्तब्ध हो कहने लगा ..
"प्रतिबिम्ब की शुद्धता हो " !
या पारदर्शिता की स्निग्धता ?

मैं मृतप्राय सा पड़ा था ...
निशा की गोद में ..
तुम्हारी राह में ..
जगा हुआ था !

तुम शायद आई थी ..
वही पवित्रता की मूर्ति ...
तन मन कंपाते हुए ...
ह्रदय में छाई थी |

मैं सत्य असत्य की दुविधा में ...
स्वप्न मंजरी में मगन हुआ ..
निशा के आँचल में छुपा ..
संदेह और सघन हुआ |

फिर भी मुझे आभास था ...
परिस्थिति का , उपस्थिति का !
इसीलिए थाम लिया था ...
एक सच्चा प्रयास था .. |

सहसा एक खनक सी ..
वायु की धमक सी,
तुम्हारा अस्तित्व मिटाने ..
आई पवन छनक सी |

मैं शांत धैर्य से क्रूर हुआ ...
द्विगुणित हो छत्र बन..
तुम्हारे चहुँ ओर लिपट गया ...
बिना छुए ! तुम सहम गयी !

थपेडों से लड़ मैंने ..
खुद को बस मिटा दिया था ...
जर्जर था पर था कितना खुश ..
तुम्हारा शील बचा लिया था |

प्राण प्रयाण होने को व्याकुल ..
मैंने कुछ पल मांग लिए थे ...
रवि की किरण को पुकार रहा था ...
आये तुम्हें आत्मसात करे |

हे तरंगिनी-भानु की संतान |
मैं अब जा रहा हूँ ..
घायल हो चुका हूँ ...
लेकिन मन में संतोष लिए |

तुम्हें बस ये बताना है ..
प्रेम बहुत है मेरे मन में ..
किन्तु त्याग है ज्यादा शायद !
पाने के भाव का परित्याग किये |

सदियों से मैं लड़ता आया ...
सदियों तक मैं लड़ता रहूँगा ...
बस तुम कुछ पल मेरे आगोश में यूँ ही बिता कर ...
सरिता रवि से सजे अपने घर में चले जाना |

2 comments:

ओम आर्य said...

बहुत ही खुब्सोरत एहसासो से भरा पडा है पत्र का प्रेम ........खुबसूरत रचना

Anand Shankar Mishra said...

bahinchod!!
mastt kavita hai guru..sahi :)