जा रहा है पंछी एक ,
बनाने अपने घरौंदे अनेक ...
उजला सा ..नन्हा सा ...
भीड़ में तन्हा सा ..
स्वप्न में खोया ...
दिल में रोया ..
नीर तृष्णा का आभास ..
मंजिल की प्यास ...
मन में लिए ..
तन में लिए ...
उड़ चला ..आशियाने में ...
अनजाने से ठिकाने में ..
दूर उस ठूंठ से ...हुआ जैसे ...
पता नहीं कैसे ...
मुड़ा पीछे ..और ..
कुछ यादें ..कुछ बातें ...
कुछ हंसी ..कुछ ठट्टे ..
कुछ रूठना ..कुछ एंठना ..
कुछ सताना ...कुछ मनाना ..
कुछ बताना ..कुछ छिपाना ..
दो साल ऐसे बिताना ...
जिसमें...
जीवन की लचक ...
सर्वस्व की खनक ...
आनंद की ठनक ..
मस्ती की छनक ..
पागल सी सनक ..
उजला सा कनक ...
प्यारी सी भनक ..
अपने अन्दर समाया हुआ ...
वो तरु विस्मित ...
नेत्र खोले हंस रहा है ..
रो रहा है ..
नव बीज कल्पित ..
बो रहा है ...
क्यूंकि यही नियम है ..
प्रकृति का ..जिसमें ..
सुन्दर आकृति को ..
बिगड़ना पड़ता है ...
नए सृजन नयी रचना के लिए ...
जो हमेशा ज्यादा सुन्दर होती है |
ऐसे ही तो जीवन चलता है ..
ऐसे ही तो सूर्य उगता है ...
निशा की गोद में आत्मसमर्पण कर ...
प्रातः पुनः लालिमा बिखेरने के लिए |
तरु से दूर जाने पर मन उदास है ...
और उससे भी ज्यादा ..
कुछ खग विहग हैं ..
मेरे प्रतिबिम्ब ...
जिनके साथ खेला ..
जीवन का मेला ..
हंसा रोया गाया पाया ..
स्नेह ..प्रेम ..और अर्पण मैं ..
कुछ भी न कर पाया ..!
लेकिन भाव से ...कामना है ..
सुखद सौंदर्य की ...
सबके जीवन में ...
हंसी ठिठोली ..का ...
साम्राज्य हो ...|
फूलता रहे तरु और साथ उसके ...
निवासी भी ..
मिलने की आस लिए ..
एक पल ठिठकता ...
हँसता रोता ...
फिर जा रहा है ...
वो विहग...
एक नया तरु खोजने ..
जिसकी शाखों पर बैठकर ...
वो पुराने तरु को याद कर सके |
~वैभव
Thursday, September 10, 2009
Wednesday, August 26, 2009
पत्र का प्रेम
ओस बिंदु की अंगडाई देख ..
पत्र स्तब्ध हो कहने लगा ..
"प्रतिबिम्ब की शुद्धता हो " !
या पारदर्शिता की स्निग्धता ?
मैं मृतप्राय सा पड़ा था ...
निशा की गोद में ..
तुम्हारी राह में ..
जगा हुआ था !
तुम शायद आई थी ..
वही पवित्रता की मूर्ति ...
तन मन कंपाते हुए ...
ह्रदय में छाई थी |
मैं सत्य असत्य की दुविधा में ...
स्वप्न मंजरी में मगन हुआ ..
निशा के आँचल में छुपा ..
संदेह और सघन हुआ |
फिर भी मुझे आभास था ...
परिस्थिति का , उपस्थिति का !
इसीलिए थाम लिया था ...
एक सच्चा प्रयास था .. |
सहसा एक खनक सी ..
वायु की धमक सी,
तुम्हारा अस्तित्व मिटाने ..
आई पवन छनक सी |
मैं शांत धैर्य से क्रूर हुआ ...
द्विगुणित हो छत्र बन..
तुम्हारे चहुँ ओर लिपट गया ...
बिना छुए ! तुम सहम गयी !
थपेडों से लड़ मैंने ..
खुद को बस मिटा दिया था ...
जर्जर था पर था कितना खुश ..
तुम्हारा शील बचा लिया था |
प्राण प्रयाण होने को व्याकुल ..
मैंने कुछ पल मांग लिए थे ...
रवि की किरण को पुकार रहा था ...
आये तुम्हें आत्मसात करे |
हे तरंगिनी-भानु की संतान |
मैं अब जा रहा हूँ ..
घायल हो चुका हूँ ...
लेकिन मन में संतोष लिए |
तुम्हें बस ये बताना है ..
प्रेम बहुत है मेरे मन में ..
किन्तु त्याग है ज्यादा शायद !
पाने के भाव का परित्याग किये |
सदियों से मैं लड़ता आया ...
सदियों तक मैं लड़ता रहूँगा ...
बस तुम कुछ पल मेरे आगोश में यूँ ही बिता कर ...
सरिता रवि से सजे अपने घर में चले जाना |
पत्र स्तब्ध हो कहने लगा ..
"प्रतिबिम्ब की शुद्धता हो " !
या पारदर्शिता की स्निग्धता ?
मैं मृतप्राय सा पड़ा था ...
निशा की गोद में ..
तुम्हारी राह में ..
जगा हुआ था !
तुम शायद आई थी ..
वही पवित्रता की मूर्ति ...
तन मन कंपाते हुए ...
ह्रदय में छाई थी |
मैं सत्य असत्य की दुविधा में ...
स्वप्न मंजरी में मगन हुआ ..
निशा के आँचल में छुपा ..
संदेह और सघन हुआ |
फिर भी मुझे आभास था ...
परिस्थिति का , उपस्थिति का !
इसीलिए थाम लिया था ...
एक सच्चा प्रयास था .. |
सहसा एक खनक सी ..
वायु की धमक सी,
तुम्हारा अस्तित्व मिटाने ..
आई पवन छनक सी |
मैं शांत धैर्य से क्रूर हुआ ...
द्विगुणित हो छत्र बन..
तुम्हारे चहुँ ओर लिपट गया ...
बिना छुए ! तुम सहम गयी !
थपेडों से लड़ मैंने ..
खुद को बस मिटा दिया था ...
जर्जर था पर था कितना खुश ..
तुम्हारा शील बचा लिया था |
प्राण प्रयाण होने को व्याकुल ..
मैंने कुछ पल मांग लिए थे ...
रवि की किरण को पुकार रहा था ...
आये तुम्हें आत्मसात करे |
हे तरंगिनी-भानु की संतान |
मैं अब जा रहा हूँ ..
घायल हो चुका हूँ ...
लेकिन मन में संतोष लिए |
तुम्हें बस ये बताना है ..
प्रेम बहुत है मेरे मन में ..
किन्तु त्याग है ज्यादा शायद !
पाने के भाव का परित्याग किये |
सदियों से मैं लड़ता आया ...
सदियों तक मैं लड़ता रहूँगा ...
बस तुम कुछ पल मेरे आगोश में यूँ ही बिता कर ...
सरिता रवि से सजे अपने घर में चले जाना |
Thursday, August 13, 2009
लक्ष्य
तू चल पड़े जो सिंह सा तो क्या धरा है क्या गगन !
डोल मदमस्त सा तू कर चिंघाड़ हो मगन |
कायरों की भीड़ में पुकारता तू हंस के चल ..
ठूंठ के इस युग्म में बढा क़दम फिर मचल |
मृत्यु एक सोम है बस प्रश्न है कि कब पिए ?
ये नहीं कितना जिये ..ये है कि कैसे जिये ?
खुद को मारना बदल के उठ प्रचंड तू निकल ..
मर रहा है क्या असंख्य मौत पूछता है पल ?
हर कोई है जी रहा तो जीने में क्या बात है ?
कर सफल जो जन्म को तो वो सत्य प्रसाद है |
आज गर तू छुप गया तो कायर ही कहलायेगा ..
नरमुंड हैं पड़े तू भी एक बन जाएगा |
शस्त्र उठा युद्ध कर , परिणाम से तू अब न डर ...
विजयी हो बन अजर या शहीद हो तू बन अमर |
डोल मदमस्त सा तू कर चिंघाड़ हो मगन |
कायरों की भीड़ में पुकारता तू हंस के चल ..
ठूंठ के इस युग्म में बढा क़दम फिर मचल |
मृत्यु एक सोम है बस प्रश्न है कि कब पिए ?
ये नहीं कितना जिये ..ये है कि कैसे जिये ?
खुद को मारना बदल के उठ प्रचंड तू निकल ..
मर रहा है क्या असंख्य मौत पूछता है पल ?
हर कोई है जी रहा तो जीने में क्या बात है ?
कर सफल जो जन्म को तो वो सत्य प्रसाद है |
आज गर तू छुप गया तो कायर ही कहलायेगा ..
नरमुंड हैं पड़े तू भी एक बन जाएगा |
शस्त्र उठा युद्ध कर , परिणाम से तू अब न डर ...
विजयी हो बन अजर या शहीद हो तू बन अमर |
Thursday, July 9, 2009
जन्म
चन्द्र की आभा लिए ...
स्वर्ग से उतरा कोई ...
नन्हा सा एक सौंदर्य ...
क्षितिज में बिखरा कहीं ... |
वो मासूमियत की ताल पर ...
है स्वर अनोखा दे रहा ...
वो दिव्य दीप की चमक में ...
बन स्फटिक प्रेम ले रहा ..|
लो खिलखिलाहट आ गयी ...
रुदन के उस खेल में ...
लो जगमगाहट छा गयी ...
उस दिव्यता के मेल में ...|
सूक्ष्म में भी सूक्ष्म है ...
जो इंगित करता जन्म है ...
उस उर की विशालता का ...
भान किन्तु आजन्म है .. |
सबमें वो जुडा हुआ है ...
सबमें वो मुडा हुआ है ...
एक सांस का प्रतीक है ...
एक अमरता का गीत है |
वो अजन्मा आज जन्मा ..
देख प्रकृति हंस रही है ..
नेकी मन में प्रफुल्लित होती ..
बदी भूतल धंस रही है |
अद्भुत सा प्रताप है ...
जो चहुँ ओर छाया है ...
एक बार फिर मुरली बजाने ...
देखो कान्हा आया है |
स्वर्ग से उतरा कोई ...
नन्हा सा एक सौंदर्य ...
क्षितिज में बिखरा कहीं ... |
वो मासूमियत की ताल पर ...
है स्वर अनोखा दे रहा ...
वो दिव्य दीप की चमक में ...
बन स्फटिक प्रेम ले रहा ..|
लो खिलखिलाहट आ गयी ...
रुदन के उस खेल में ...
लो जगमगाहट छा गयी ...
उस दिव्यता के मेल में ...|
सूक्ष्म में भी सूक्ष्म है ...
जो इंगित करता जन्म है ...
उस उर की विशालता का ...
भान किन्तु आजन्म है .. |
सबमें वो जुडा हुआ है ...
सबमें वो मुडा हुआ है ...
एक सांस का प्रतीक है ...
एक अमरता का गीत है |
वो अजन्मा आज जन्मा ..
देख प्रकृति हंस रही है ..
नेकी मन में प्रफुल्लित होती ..
बदी भूतल धंस रही है |
अद्भुत सा प्रताप है ...
जो चहुँ ओर छाया है ...
एक बार फिर मुरली बजाने ...
देखो कान्हा आया है |
Thursday, June 18, 2009
शौर्य ...
वायु के समान जो ...
प्रचंड हो के चल रहा ..
मदमस्त गज की चाल में ..
बन प्रलय जो टल रहा ...
जो शेर की चिंघाड़ से ...
है चीरता वो चुप सा वन ...
जो खड्ग के प्रहार से ...
है भेदता वो भीरु मन ...
है रूप में चमक कहीं ...
है बात में खनक कहीं ...
नीड़ की उस टोह में ...
जो कर चले धमक कहीं ...
वो शौर्य का प्रतीक हैं ...
वो शहीदों का गीत है ...
मन से गर जो लड़ उठे तो ..
हार में भी जीत है ...
वो विजय का प्रमाण है ...
वो लक्ष्य भेदी बाण है ...
वो लहू का अभिमान है ...
वो मुकुटमणि की शान है ...
वो वीरता का दंभ है ...
वो अचल अटूट खम्ब है ..
वो कर्म से महान है ...
वो विश्व रूप ज्ञान है ...
उस शास्त्र को ..
उस अस्त्र को ...
प्रवीणता का भान है ...
तत्त्व का भी ज्ञान है ...
अंतिम ये प्रमाण है ..
कि वीर ही महान है ..
धीर ही महान है ...
गर्व ही महान है ...
शौर्य ही महान है |
प्रचंड हो के चल रहा ..
मदमस्त गज की चाल में ..
बन प्रलय जो टल रहा ...
जो शेर की चिंघाड़ से ...
है चीरता वो चुप सा वन ...
जो खड्ग के प्रहार से ...
है भेदता वो भीरु मन ...
है रूप में चमक कहीं ...
है बात में खनक कहीं ...
नीड़ की उस टोह में ...
जो कर चले धमक कहीं ...
वो शौर्य का प्रतीक हैं ...
वो शहीदों का गीत है ...
मन से गर जो लड़ उठे तो ..
हार में भी जीत है ...
वो विजय का प्रमाण है ...
वो लक्ष्य भेदी बाण है ...
वो लहू का अभिमान है ...
वो मुकुटमणि की शान है ...
वो वीरता का दंभ है ...
वो अचल अटूट खम्ब है ..
वो कर्म से महान है ...
वो विश्व रूप ज्ञान है ...
उस शास्त्र को ..
उस अस्त्र को ...
प्रवीणता का भान है ...
तत्त्व का भी ज्ञान है ...
अंतिम ये प्रमाण है ..
कि वीर ही महान है ..
धीर ही महान है ...
गर्व ही महान है ...
शौर्य ही महान है |
Thursday, June 4, 2009
तत्त्व ...
कुछ नया सा ..ख्वाब सा ...
एक सत्व के आभास सा ...
एक भक्त की अरदास सा ..
एक भ्रमर के परिहास सा ..
एक नूर के आनंद सा ...
एक सुखमयी सानंद सा ..
एक भाव जो निर्बंध सा ..
एक सूर के उस छंद सा ...
एक जलोधि के आगोश सा ..
एक पयोधि से खरगोश सा ...
एक चेतन मन मदहोश सा ...
एक खग कलोल खामोश सा ...
एक वीणा की झंकार सा ...
एक रागों के अधिकार सा ...
एक शब्दों के संसार सा ...
एक लयबद्ध श्रृगार सा ...
एक परमाणु के से मर्म सा ...
एक मानवता के धर्मं सा ...
एक शर्माती सी शर्म सा ...
एक गीता के उस कर्म सा ...
जो तत्त्व है ...
जो सत्व है ...
जो ज्ञान है ...
संज्ञान है ...
जो द्रव्य है ..
न श्रव्य है ...
उस तेज को ...
पर सेज को ...
प्रणाम है ..
और चाह है ..
जिसको ढूंढती ...
ये राह है |
एक सत्व के आभास सा ...
एक भक्त की अरदास सा ..
एक भ्रमर के परिहास सा ..
एक नूर के आनंद सा ...
एक सुखमयी सानंद सा ..
एक भाव जो निर्बंध सा ..
एक सूर के उस छंद सा ...
एक जलोधि के आगोश सा ..
एक पयोधि से खरगोश सा ...
एक चेतन मन मदहोश सा ...
एक खग कलोल खामोश सा ...
एक वीणा की झंकार सा ...
एक रागों के अधिकार सा ...
एक शब्दों के संसार सा ...
एक लयबद्ध श्रृगार सा ...
एक परमाणु के से मर्म सा ...
एक मानवता के धर्मं सा ...
एक शर्माती सी शर्म सा ...
एक गीता के उस कर्म सा ...
जो तत्त्व है ...
जो सत्व है ...
जो ज्ञान है ...
संज्ञान है ...
जो द्रव्य है ..
न श्रव्य है ...
उस तेज को ...
पर सेज को ...
प्रणाम है ..
और चाह है ..
जिसको ढूंढती ...
ये राह है |
विदाई
गुपचुप बैठी वसंत देखो ..
मनुहार करता अम्बर देखो ...
दूर क्षितिज से ..
पोटली में बांधे ...
कुछ ला रहा है ..
उसके लिए ...जो जा रहा है |
पवन का वो गीत सुनो ...
पेडों का संगीत बुनो ...
जो पत्रकों की ..
सरसराहट में ..
नव राग छेड़े गा रहा है ..
उसके लिए.... जो जा रहा है |
श्वेत स्वर्ण की जगमगाहट ...
हिमगिरी की वो सुगबुगाहट ...
अपने ही अंदाज में ..
कम्पन ला रही है ...
जिसकी लय से उपजा सौंदर्य ...
देखो देवदार को ...
भा रहा है ...
उसके लिए ...जो जा रहा है |
नीर का वो सादापन ...
निर्मल, निश्छल, भोलापन ...
स्वाति नक्षत्र की उस बूँद को ...
खुद में समा कर ...
एक सीप ढूंढ ..मना कर ...
मोती उसको बना कर ...
आज ला रहा है ..
उसके लिए ...जो जा रहा है |
मनुहार करता अम्बर देखो ...
दूर क्षितिज से ..
पोटली में बांधे ...
कुछ ला रहा है ..
उसके लिए ...जो जा रहा है |
पवन का वो गीत सुनो ...
पेडों का संगीत बुनो ...
जो पत्रकों की ..
सरसराहट में ..
नव राग छेड़े गा रहा है ..
उसके लिए.... जो जा रहा है |
श्वेत स्वर्ण की जगमगाहट ...
हिमगिरी की वो सुगबुगाहट ...
अपने ही अंदाज में ..
कम्पन ला रही है ...
जिसकी लय से उपजा सौंदर्य ...
देखो देवदार को ...
भा रहा है ...
उसके लिए ...जो जा रहा है |
नीर का वो सादापन ...
निर्मल, निश्छल, भोलापन ...
स्वाति नक्षत्र की उस बूँद को ...
खुद में समा कर ...
एक सीप ढूंढ ..मना कर ...
मोती उसको बना कर ...
आज ला रहा है ..
उसके लिए ...जो जा रहा है |
Thursday, May 28, 2009
अदना सा इंसान
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
चलता फिरता ...
बर्फ का टुकडा ...
जोश में भी पिघल जाता हूँ ...
ख्वाब अपने निगल जाता हूँ ...
राह बनती है ..है तो ..फिर
दूसरी ओर निकल जाता हूँ ...
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
मुझे डर लगता है ...
अट्टालिकाओं से !
जिसमें मेरा पसीना लगा है ...
और चार पहिये के उस इंसान से ...
जो दौड़ता है ..बरबस ...
मेरी जान लेने के लिये |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
पेट पर रखकर पत्थर ...
सोचता हूँ भूख मिट गयी ...
और भूल कर भी नहीं देखता सामने ...
क्या पता कोई स्वान बिस्किट खाता दिख पड़े |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
छुप छुप कर लकडी जला कर ...
कुछ आधी जली रोटी सेंकता हूँ ...
कुछ बड़े लोग आकर ..तोड़ देते चूल्हा मेरा ...
कहते परदुषण होगा !!!!
मैं लिपट जाता अपने चीथडो वाले कम्बल में ...
और देखता उन्हें उनकी कार में ...धुंआ उडा कर ...
पास के कारखाने के गंदे नाले के किनारे चलते हुए |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
मेरा बच्चा खेलता है नगरपालिका के डब्बे में ...
कुछ सभ्य से बच्चे आकर नाक बंद कर निकल जाते हैं ...
और फेंक जाते हैं टॉफी के कपडे खरे !
वो सोचता है कि कचरे के डब्बे में क्यूँ नहीं फेंका इसे ?
फिर बटोर कर उन्हें ...अपनी खेलती दुनिया में रम जाता है |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
सपने दिखाता लोगों को अपनी डुगडुगी बजाकर..
आवाज जिसकी मेरे आलावा सुनते हैं सभी ...
मैं भी सुनता हूँ लेकिन अन्तः में नहीं !
डरता हूँ जीवन तो टूट गया है ....
सपने न टूट जाएँ कहीं |
चलता फिरता ...
बर्फ का टुकडा ...
जोश में भी पिघल जाता हूँ ...
ख्वाब अपने निगल जाता हूँ ...
राह बनती है ..है तो ..फिर
दूसरी ओर निकल जाता हूँ ...
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
मुझे डर लगता है ...
अट्टालिकाओं से !
जिसमें मेरा पसीना लगा है ...
और चार पहिये के उस इंसान से ...
जो दौड़ता है ..बरबस ...
मेरी जान लेने के लिये |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
पेट पर रखकर पत्थर ...
सोचता हूँ भूख मिट गयी ...
और भूल कर भी नहीं देखता सामने ...
क्या पता कोई स्वान बिस्किट खाता दिख पड़े |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
छुप छुप कर लकडी जला कर ...
कुछ आधी जली रोटी सेंकता हूँ ...
कुछ बड़े लोग आकर ..तोड़ देते चूल्हा मेरा ...
कहते परदुषण होगा !!!!
मैं लिपट जाता अपने चीथडो वाले कम्बल में ...
और देखता उन्हें उनकी कार में ...धुंआ उडा कर ...
पास के कारखाने के गंदे नाले के किनारे चलते हुए |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
मेरा बच्चा खेलता है नगरपालिका के डब्बे में ...
कुछ सभ्य से बच्चे आकर नाक बंद कर निकल जाते हैं ...
और फेंक जाते हैं टॉफी के कपडे खरे !
वो सोचता है कि कचरे के डब्बे में क्यूँ नहीं फेंका इसे ?
फिर बटोर कर उन्हें ...अपनी खेलती दुनिया में रम जाता है |
मैं एक अदना सा इंसान हूँ ....
सपने दिखाता लोगों को अपनी डुगडुगी बजाकर..
आवाज जिसकी मेरे आलावा सुनते हैं सभी ...
मैं भी सुनता हूँ लेकिन अन्तः में नहीं !
डरता हूँ जीवन तो टूट गया है ....
सपने न टूट जाएँ कहीं |
Thursday, April 9, 2009
शर्माना तेरा .....
शर्माना तेरा ...
जैसे अक्स से नजरें चुराना तेरा ...
जैसे ख्वाबों की बटिया जोह के ...
फिर तेरे घर आना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे बात बात पर बच्चे सा इतराना तेरा ..
जैसे ओस की सप्तरंग छटा में प्रातः ...
निस्तब्ध सा डूब जाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे उस अदा से नजरें झुकाना तेरा ..
जैसे नए साज को खोजता ...
वो टूटा ढोलक पुराना मेरा |
शर्माना तेरा ....
जैसे उस हंसी को अधरों में छिपाना तेरा ...
जैसे बोलने की हसरत दिल में लिए ...
हर एक शब्द भूल जाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे उँगलियों से लट को उलझाना तेरा ...
जैसे उस लट को छूने की कोशिश में ...
हाथ से हाथ को दबाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे भाल में सिलवटें पड़ जाना तेरा ...
जैसे तरंगिनियों के मेले में विस्मित ...
तुझ पर मर जाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे एक कायनात के जन्म का फ़साना तेरा ...
जैसे तुझे पाने की आस में ...
प्रकृति सा शिशु बन जाना मेरा |
~वैभव
जैसे अक्स से नजरें चुराना तेरा ...
जैसे ख्वाबों की बटिया जोह के ...
फिर तेरे घर आना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे बात बात पर बच्चे सा इतराना तेरा ..
जैसे ओस की सप्तरंग छटा में प्रातः ...
निस्तब्ध सा डूब जाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे उस अदा से नजरें झुकाना तेरा ..
जैसे नए साज को खोजता ...
वो टूटा ढोलक पुराना मेरा |
शर्माना तेरा ....
जैसे उस हंसी को अधरों में छिपाना तेरा ...
जैसे बोलने की हसरत दिल में लिए ...
हर एक शब्द भूल जाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे उँगलियों से लट को उलझाना तेरा ...
जैसे उस लट को छूने की कोशिश में ...
हाथ से हाथ को दबाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे भाल में सिलवटें पड़ जाना तेरा ...
जैसे तरंगिनियों के मेले में विस्मित ...
तुझ पर मर जाना मेरा |
शर्माना तेरा ...
जैसे एक कायनात के जन्म का फ़साना तेरा ...
जैसे तुझे पाने की आस में ...
प्रकृति सा शिशु बन जाना मेरा |
~वैभव
Wednesday, April 1, 2009
पुष्प और तितली
फक्र करता था फूल जो अपनी रंगेशुमारी पर ...
किराये के रंग वर्ण और छद्म आभा खुमारी पर ...
तोड़ कर उसका गुरूर तितली ने दिखा दिया ...
रंगों का वितरण अनोखा कैसे ? उसको सिखा दिया ...
खुद में रंगे तो क्या रंगे ! सिमट पड़े एक मुष्टिका में ...
रंगना है तो आसमान को रंगों दिल की वृतिक्का में ..
सिमट गए खुद में ही तो अस्तित्व ही मिट जायेगा ...
खुद को फैलाओ धरा में गात अमर हो जायेगा ...
पुष्प ! तुम्हारा अस्तित्व है गर और पुष्प रंग हैं ...
तितली तो बस द्विगुणित करती तुम्हें ! जैसे अनंग है ..|
किराये के रंग वर्ण और छद्म आभा खुमारी पर ...
तोड़ कर उसका गुरूर तितली ने दिखा दिया ...
रंगों का वितरण अनोखा कैसे ? उसको सिखा दिया ...
खुद में रंगे तो क्या रंगे ! सिमट पड़े एक मुष्टिका में ...
रंगना है तो आसमान को रंगों दिल की वृतिक्का में ..
सिमट गए खुद में ही तो अस्तित्व ही मिट जायेगा ...
खुद को फैलाओ धरा में गात अमर हो जायेगा ...
पुष्प ! तुम्हारा अस्तित्व है गर और पुष्प रंग हैं ...
तितली तो बस द्विगुणित करती तुम्हें ! जैसे अनंग है ..|
Monday, March 9, 2009
रंग और होली
रंग और लहू में अन्तर नही बचा है ...
कोई भाल पर लगा है ..
कोई भाल पर सजा है ...
एक एक रक्त बूँद छूटती जा रही है ...
और वो कहते हैं, होली आ रही है !!
होली तो था प्रेम का सद्भाव का पुलिंदा ...
धर्म जाति भेद में रहा न भाव जिन्दा ...
आज गले मिलने में भी भय सोच ला रही है ...
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
दहन था उस होलिका का , बदी की जो प्रतीक थी ...
जल में पाप धुलते थे तब ..होली की ये सीख थी ...
आज हाय ! अग्नि ये क्यूँ प्रहलाद को जला रही है ... ?
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
कुछ गीत हो रहे हैं ? या ये मेरा भ्रम है ...
क्रंदन हो रहा चहुँ ओर ..ये तो सिर्फ़ तम है ...
आशा भी मर चुकी है अब जिंदगी सता रही है ...
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
कोई भाल पर लगा है ..
कोई भाल पर सजा है ...
एक एक रक्त बूँद छूटती जा रही है ...
और वो कहते हैं, होली आ रही है !!
होली तो था प्रेम का सद्भाव का पुलिंदा ...
धर्म जाति भेद में रहा न भाव जिन्दा ...
आज गले मिलने में भी भय सोच ला रही है ...
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
दहन था उस होलिका का , बदी की जो प्रतीक थी ...
जल में पाप धुलते थे तब ..होली की ये सीख थी ...
आज हाय ! अग्नि ये क्यूँ प्रहलाद को जला रही है ... ?
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
कुछ गीत हो रहे हैं ? या ये मेरा भ्रम है ...
क्रंदन हो रहा चहुँ ओर ..ये तो सिर्फ़ तम है ...
आशा भी मर चुकी है अब जिंदगी सता रही है ...
और वो कहते हैं , होली आ रही है !!
Wednesday, March 4, 2009
हवा
कल सुबह जागने के बाद अलसाई आँखें लिए जैसे ही मैंने दरवाजा खोला सामने किसी को खडा पाया | वो टुकुर टुकुर मुझे निहार रही थी | मैंने आँखें भींच कर उससे विलग होने का प्रयास किया लेकिन मन से उसे हटा नहीं पाया, एहसास से उसे मिटा नहीं पाया | हार कर मैंने आँखें खोली और तभी मुझे ध्यान आया की इसे तो मैंने कल भी देखा है ..परसों भी ...उससे पहले भी ... | पहली बात उसे कब देखा ये सोच नहीं पाया ! वो अभी भी मुस्कुरा रही थी | उसकी आँखों में अजीब सा सुकून था | अचानक उसने मुझे धीरे से छू लिया | मैं चौंक गया ..घबरा गया ..लेकिन अगले ही पल इक कोमल स्पर्श का शीतल अनुभव हुआ | एसा लगा जैसे असंख्य पंख बिना मेरी इच्छा के पूरी शिद्दत के साथ मनुहार कर रहे हैं और मैं मदहोश हो बस उस दिव्य तरंगिनी में बहता चला जा रहा हूँ | डरते हुए मैंने भी उसकी ओर हाथ बढाया लेकिन उसे छू न पाया बस इक स्वर्गिक आनंद का अभी भी अनुभव हो रहा था |
Monday, February 9, 2009
खून मांगता हूँ ...
ऐ वीर पुत्र ! तू है खड़ा क्यूँ शीश को लिए झुका ...
पला है गोद में जहाँ तू उस धरा का ऋण चुका ...
धन नही मैं.....कुर्बानियों का जूनून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ ...मैं खून मांगता हूँ |
क्या सोच के तू तज रहा है शमशीर की वो तेज धार ...
नपुंसक बना रहा है तुझे बन्धनों का छद्म प्यार ...
प्रेम नही ज्वाला का धधकता ...जूनून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ ...मैं खून मांगता हूँ |
कोमलता अभिशाप है , लगी देश में आग है ...
सीमाओं के अन्दर बाहर.. जाने कितना दाग है ....
उस दाग को मिटा सके वो ...जूनून मांगता हूँ ..
मैं खून मांगता हूँ, मैं खून मांगता हूँ |
खो चुकी हँसी कहीं , रो रहा है देश आज ...
बुत न बन अनजान सा , तू भी उठा ले आवाज ...
ध्वनि नही चीत्कार सा ..जूनून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ , मैं खून मांगता हूँ |
मर मर के तू है जी रहा , मुर्दों के संसार में ...
चल उठ खड़ा हो वार कर , पौरुष की धार में ...
बचा ले गर्व को जो वो ..सुकून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ ,मैं खून मांगता हूँ |
क्रमशः ...
पला है गोद में जहाँ तू उस धरा का ऋण चुका ...
धन नही मैं.....कुर्बानियों का जूनून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ ...मैं खून मांगता हूँ |
क्या सोच के तू तज रहा है शमशीर की वो तेज धार ...
नपुंसक बना रहा है तुझे बन्धनों का छद्म प्यार ...
प्रेम नही ज्वाला का धधकता ...जूनून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ ...मैं खून मांगता हूँ |
कोमलता अभिशाप है , लगी देश में आग है ...
सीमाओं के अन्दर बाहर.. जाने कितना दाग है ....
उस दाग को मिटा सके वो ...जूनून मांगता हूँ ..
मैं खून मांगता हूँ, मैं खून मांगता हूँ |
खो चुकी हँसी कहीं , रो रहा है देश आज ...
बुत न बन अनजान सा , तू भी उठा ले आवाज ...
ध्वनि नही चीत्कार सा ..जूनून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ , मैं खून मांगता हूँ |
मर मर के तू है जी रहा , मुर्दों के संसार में ...
चल उठ खड़ा हो वार कर , पौरुष की धार में ...
बचा ले गर्व को जो वो ..सुकून मांगता हूँ ...
मैं खून मांगता हूँ ,मैं खून मांगता हूँ |
क्रमशः ...
रेत
मैं घूमता सा बढ़ रहा था ...
झूमता सा चल रहा था ...
मरीचिका थी छल गई ...
वो रेत थी ..फिसल गई |
चमचमा रही थी वो भी ...
खिलखिला रही थी वो भी ...
सोच थी जल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
ख़ुद में धंसा लिया था मुझको ...
अपना बना लिया था मुझको ...
फ़िर चाल क्यूँ वो चल गई ?
वो रेत थी फिसल गई |
पादुकायें त्याग कर भागा ...
नीर तृष्णा में रात भर जागा ...
वो वाष्प बन निकल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
मैं निढाल हो गिर पड़ा था ...
प्राण त्याग मृत पड़ा था ...
वो सर्प बन निगल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
झूमता सा चल रहा था ...
मरीचिका थी छल गई ...
वो रेत थी ..फिसल गई |
चमचमा रही थी वो भी ...
खिलखिला रही थी वो भी ...
सोच थी जल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
ख़ुद में धंसा लिया था मुझको ...
अपना बना लिया था मुझको ...
फ़िर चाल क्यूँ वो चल गई ?
वो रेत थी फिसल गई |
पादुकायें त्याग कर भागा ...
नीर तृष्णा में रात भर जागा ...
वो वाष्प बन निकल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
मैं निढाल हो गिर पड़ा था ...
प्राण त्याग मृत पड़ा था ...
वो सर्प बन निगल गई ...
वो रेत थी फिसल गई |
Monday, January 5, 2009
प्रेम प्रस्ताव ...
तुझे आ बिठा कर ले चलूँ ...
उस चाँद के झरोखे में ...
डर है ये कि चाँद न ..
कहीं धूमल हो इस धोखे में ...
कि एक परी जन्नत से कहीं ..
उतर आई मेरे लिए ...
इतनी निश्चल इतनी कोमल ..
बिना कोई स्वाँग किए |
वो मुस्कुरायी तो फूल खिल उठे ...
वो खिलखिलाई तो बिछडे मिल उठे ..
सौंदर्य कहते हैं सभी उसे ..
मैंने कहा तो अधर सिल उठे |
उसकी वो लट गालों से झूम के इतराई ..
आंखों की चमक जाने क्या कह आई ?
सोचता रह गया मैं कहाँ से ...
इतना स्नेह-प्रेम-सौंदर्य वो ले आई ?
नजर नही हटी जब देर तक मेरी ..
चुपके से वो यूँ शरमाई ...
इस पल पर पूरी कायनात लुटा दूँ ..
सोच मेरी आँखें भर आई |
मधुर वाणी में कुछ उसने बोला ...
जैसे सहस्त्रों वीणा के तारों को खोला ..
मन झंकृत कर गया वो एक ही शब्द ...
अर्थ बड़ा पर कितना भोला |
नज़ारे शायद बनते रहेंगे ...
ये पल भी समय छलनी में छनते रहेंगे ..
जोडियाँ स्वर्ग में बनती है शायद ..
हाँ ये रिश्ते यूँ ही बनते रहेंगे |
हे प्रिये ! इसे स्वीकार करो ...
अन्तः मन से अंगीकार करो ...
मैं ह्रदय फैलाये बैठा हूँ ..
तुम उर पुष्प का वार करो !
ये प्रेम मेरा कुछ सादा है ...
लेकिन अनंत से ज्यादा है ..
क्या बनोगी मेरी जीवन संगिनी ?
मैं चातक बनूँगा ये वादा है |
उस चाँद के झरोखे में ...
डर है ये कि चाँद न ..
कहीं धूमल हो इस धोखे में ...
कि एक परी जन्नत से कहीं ..
उतर आई मेरे लिए ...
इतनी निश्चल इतनी कोमल ..
बिना कोई स्वाँग किए |
वो मुस्कुरायी तो फूल खिल उठे ...
वो खिलखिलाई तो बिछडे मिल उठे ..
सौंदर्य कहते हैं सभी उसे ..
मैंने कहा तो अधर सिल उठे |
उसकी वो लट गालों से झूम के इतराई ..
आंखों की चमक जाने क्या कह आई ?
सोचता रह गया मैं कहाँ से ...
इतना स्नेह-प्रेम-सौंदर्य वो ले आई ?
नजर नही हटी जब देर तक मेरी ..
चुपके से वो यूँ शरमाई ...
इस पल पर पूरी कायनात लुटा दूँ ..
सोच मेरी आँखें भर आई |
मधुर वाणी में कुछ उसने बोला ...
जैसे सहस्त्रों वीणा के तारों को खोला ..
मन झंकृत कर गया वो एक ही शब्द ...
अर्थ बड़ा पर कितना भोला |
नज़ारे शायद बनते रहेंगे ...
ये पल भी समय छलनी में छनते रहेंगे ..
जोडियाँ स्वर्ग में बनती है शायद ..
हाँ ये रिश्ते यूँ ही बनते रहेंगे |
हे प्रिये ! इसे स्वीकार करो ...
अन्तः मन से अंगीकार करो ...
मैं ह्रदय फैलाये बैठा हूँ ..
तुम उर पुष्प का वार करो !
ये प्रेम मेरा कुछ सादा है ...
लेकिन अनंत से ज्यादा है ..
क्या बनोगी मेरी जीवन संगिनी ?
मैं चातक बनूँगा ये वादा है |
जय गान ...
वो चल पड़ा है वीर एक ...
हाथ में लिए त्रिशूल ...
सोचता नही जो परिणिति ...
फ़िर क्या है पुष्प क्या है शूल |
अंगारे बिखराती पलकें ...
ख़ुद को ही जला रही है ...
आंधी ले आई सासें ...
जीवन को चला रही है |
मदमस्त गज सी चाल है ...
प्रखर सा वो भाल है ...
कभी हुआ करता था मित्र ...
आज वो एक काल है |
लक्ष्य है अब दिख रहा ...
सामने उसे प्रत्यक्ष ...
तडित झंझा का वेग है ...
चल में वो है दक्ष |
हाहाकार कर उठी प्रकृति ...
देखकर ये ज्वाल मुख ...
भाव रहित अक्षि लिए ...
न कोई सुख न कोई दुःख |
वीर तू आगे निकल ...
सारा जहाँ स्वागत करेगा ...
जीत ले अपने प्रताप को ...
कायर यहाँ गिर मरेगा |
कुछ समय पश्चात् ...
जीत ...एक मंत्र है
अभिलाषा का
आशा का
हर्ष की
परिभाषा का
जो है लिए
एक भाव नया
जिसमें सबने
विश्वास किया
वो फलीभूत
हो चुका है
कुहरा घना
रो चुका है ॥
नई सुबह
आ रही है
कोयल देखो
गा रही है ....
हाथ में लिए त्रिशूल ...
सोचता नही जो परिणिति ...
फ़िर क्या है पुष्प क्या है शूल |
अंगारे बिखराती पलकें ...
ख़ुद को ही जला रही है ...
आंधी ले आई सासें ...
जीवन को चला रही है |
मदमस्त गज सी चाल है ...
प्रखर सा वो भाल है ...
कभी हुआ करता था मित्र ...
आज वो एक काल है |
लक्ष्य है अब दिख रहा ...
सामने उसे प्रत्यक्ष ...
तडित झंझा का वेग है ...
चल में वो है दक्ष |
हाहाकार कर उठी प्रकृति ...
देखकर ये ज्वाल मुख ...
भाव रहित अक्षि लिए ...
न कोई सुख न कोई दुःख |
वीर तू आगे निकल ...
सारा जहाँ स्वागत करेगा ...
जीत ले अपने प्रताप को ...
कायर यहाँ गिर मरेगा |
कुछ समय पश्चात् ...
जीत ...एक मंत्र है
अभिलाषा का
आशा का
हर्ष की
परिभाषा का
जो है लिए
एक भाव नया
जिसमें सबने
विश्वास किया
वो फलीभूत
हो चुका है
कुहरा घना
रो चुका है ॥
नई सुबह
आ रही है
कोयल देखो
गा रही है ....
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