Monday, March 21, 2011

कर्म

कर्म ही तो प्राण है ..
वीर का उस धीर का ..
'अकर्म' भी तो 'कर्म' है !
'विकर्म' भी तो कर्म है !
तू तो कर्म बद्ध है |
तो तो 'रज्जु सिद्ध' है |
भाग तू सकता नहीं ..
जाग तू सकता नहीं ..
नियति में तो कर्म है ..
धर्म में भी कर्म है ..
अधर्म में भी कर्म है ..
त्याग भी तो कर्म है ..
ज्ञान भी कर्म है ..
दान भी तो कर्म है ..
सार भी तो कर्म है ..
वार भी तो कर्म है ..
जब कर्म के इस चक्र में ..
धरा में तू फंस गया ..
बिना हाथ पैर का ..
दलदल में तू धंस गया ..
तो पलायन का भाव क्यूँ ?
शौर्य का अभाव क्यूँ ?
कर्म से मुकुटमणि ..
है कभी बचता नहीं ..
चन्दन को सर्प ज्यूँ ..
है कभी तजता नहीं ..
तो कर्म जब है वस्र तो ..
क्यूँ न हम करम करें ?
कर्म बस विकर्म न हो ..
क्यूँ न ये धरम धरें ?
तो वीर तो प्रणाम कर ..
वीरता को शिरो धर ..
अकर्मण्य हो के छद्म बन !
या कर्म करके पद्म बन |

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