Sunday, May 8, 2016

माँ




एक चाबी जैसे गुड्डे की तरह
बेफिक्र हो लगातार हर पल
जो चलती चली जाती है
वो माँ कहलाती है ।

जो घर में मिठाई आती है
तो उसका क पेट भरा होता है
क्यूंकि बच्चे का मन हरा होता है
और उसको खिलाते वो मिठाई
अपनी आँखों से खाती है
वो माँ कहलाती है ।

ओढ़कर जब तुम चादर कहीं
सपनो में जी रहे होते हो
जो बुनकर एक कंबल नया
तुमको चुपके से ओढ़ा जाती है
वो माँ कहलाती है ।

जिस स्वेटर को समझकर पुरानी
फेंक देते हो नयी चीजों के लिए
उसके रेशों में भर प्यार का शहद
एक नयी चाशनी बनती है
वो माँ कहलाती है ।

थक कर कभी जब सोती है
तुम्हारे जगने की रात होती है
कैसे नींद आये उसे !
थपकियों से कहानियो से
कोशिश करती
अपनी नींद भूल कर !
तुमको फिर जो सुलाती है
वो माँ कहलाती है ।

जाते हुये बलायें लेती
रो पड़ती तुम्हारे लिए
जाना तुम्हे होता है
जान उसकी जाती है
वो माँ कहलाती है ।

भागती जिंदगी में कदम तुम्हारे
बढ़ते चले जाते हैं
और थक जाते हो जब कभी
तो याद फिर आती है !
याद ! जो ठहरना सिखाती है
वो माँ कहलाती है ।

एक खांसी पर तुम्हारी
वो सर पे उठा लेती है आसमां
और वक़्त आने पर
लड़ भी लेती है वक़्त से
तुम्हारे लिए !
तुम्हे जिंदगी दे जाती है
वो माँ कहलाती है ।

तवे से उतार के रोटी में
प्यार गूंथकर देती है
तुम कुछ खा के
कुछ बचा के
खेलने चले जाते हो
फिर वो बासी रोटी
जिसके काम आती है
वो माँ कहलाती है ।

कभी कभी डांट कर तुम्हे
किचन के उस कोने में
चुपके चुपके रोती है
डांटना पड़ता है उसे
तुमको इंसान बनती है
वो माँ कहलाती है ।

तुम्हारे वादों पर हंसती
जो तुम तोड़ देते हो नयी सुबह
जिंदगी की हर सांझ में
अपना वादा निभाती है
वो माँ कहलाती है ।

तुम्हारी फ़िक्र में सूखती है
झुर्रियों के बीच कहीं
अपना ध्यान कहाँ उसे ?
अपनी फिक्र कहाँ  कर पाती है !
वो माँ कहलाती है ।

तुम बड़े हो जाते हो जल्दी !
ऊँचे भी !
देख नहीं पाते पीछे !
और नीचे भी !
वो बस आंसुओं में
घिरी रह जाती है ।
वो माँ कहलाती है ।

तुम उसका जीवन होते हो
वो तुम्हारा पुराना पंखा !
आवाज करती है न ?
पसंद नहीं आती !
याद करो कभी तुम्हारे रोने में !
तुम्हारी जिद में !
एक मतलब ढूंढ लेती थी !
आज भी कोशिश करती
पर तुम बड़े हो गए हो
बेचारी समझ नहीं पाती है
वो माँ कहलाती है ।





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