शिक्षक है वो ज्योत जिस पर है खड़ा ये सभ्यता का ...
अनूठा इतराता मन्दिर नाचता सा शोभता सा ...
शिक्षकों ने है बनाई समाज की हर एक धुरी ..
जिसपर घूमे मुकुटमणि कुछ फैलता सा , खेलता सा ...
उनका कोई ऋण है तो वो है अकलुषित प्रेम सर्ग ...
जिसका ध्वज हाथों लिए तू घूमता सा नाचता सा ..
मन को अब स्वीकार कर कि उनका ही पथ दिख रहा ..
जिसमें चल पड़ा है तू अब बोलता सा डोलता सा ...
बिम्ब के जैसे जिए हैं वो अनोखे भाव से ...
प्रतिबिम्ब बन जा जरा तू देखता सा भालता सा !!
Thursday, September 4, 2008
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1 comment:
maharaj ... aapki panktiyon ne to man ko chhoo liya ...bilkul original!! lekin inhen public mein rakhne se pehle copyright to kara lijiye :) ...!!
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