मैं सुलग रहा हूँ ...
इस धधकती आग में ,
अपना शीश नीचे किए
धूम्र को कंठ पिए |
मैं सुलग रहा हूँ ...
इन अनजाने जज्बातों में ,
जो असत्य कसौटी पर
जगाते दिल में डर |
मैं सुलग रहा हूँ ...
अपनी ही इच्छाओं की गोद में ,
जो मर रही हैं कब से
छुपता रहा जिन्हें सब से |
मैं सुलग रहा हूँ ...
चेहरों के इस आशियाने में ,
जिसमें हर चेहरा मेरा है
फ़िर भी अक्स तेरा है |
मैं सुलग रहा हूँ ...
योजनाओं के अखाडे में ,
जो मुझे तोड़ रही हैं
बेबस सा अलग छोड़ रही हैं |
मैं सुलग रहा हूँ ...
सपनो के संसार में ,
जिसे वास्तविकता बनाना था
एक बाग़ नया सजाना था |
मैं सुलग रहा हूँ ...
अपनी तन्हाई में ,
जो साथ हो सकता था
मरू में एक पात हो सकता था |
मैं सुलग रहा हूँ ...
अपनी ही बातों में ,
जो दिल में होनी थी
मौके पर खोनी थी |
मैं सुलग रहा हूँ ...
लेकिन आज भी आता नही कोई ,
ये समझने कि मैं कहाँ बहा हूँ ...
मैं क्यूँ सुलग रहा हूँ !!!!!
Tuesday, November 11, 2008
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5 comments:
पानी डालूं क्या भाई ? या फिर सुलग रहे हो तो जला डालो |
http://northernlines.in/
भावनाओं को कैसे जलाओगे बुझाओगे बंधुवर [:प] वैसे बहुत बढिया टिपण्णी थी [:)]
sir ji.. bahut sundar kavita lkhte ho aap... bilkul peshewar full time kaviyon jaise :).
Vaise kewal kawita hi nahin.. uska bhav bhi tagda rakhte ho aap...
Hats off !!
dhanyawaad ...aapki sahridayta ke liye [:)]
jab achchhe hindi shabd likhte ho to use achchhe se likho.
sa-hridayata likho... maine pehle ise "sahri+dayata" padha tha :D
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