Saturday, September 4, 2010

मृत्युंजय

मृत्युंजय नाम से ,
दिव्य पुण्य धाम से,
वीर वो चल उठा ,
वक्र सा पिघल उठा |
सिंह की दहाड़ थी ,
कंटकों की आड़ थी |
सर्प के उस दंश सा ..
विश्व के विध्वंश सा ..
आभास यूँ होने लगा ...
दर्प भी खोने लगा ..
मृत्यु की एक सेज में ..
खडग के उस तेज में ...
नेपथ्य से जो आ रहा था ..
नशा ऐसा ला रहा था ..
मद से जो युक्त था ..
शौर्य से संयुक्त था ..
डोलता सा , बोलता सा...
प्राण को यूँ तोलता सा ..
ज्यूँ पौरुषेय दंभ हो ...
पल में यूँ अचम्भ हो ...
शत्रु भय से गल उठा ..
गिरि भी पिघल उठा ...
हाहाकार मच गया ...
बस अस्तित्व ही बच गया ...
उस अस्तित्व को साथ ले ...
चल पड़ा है वीर वो ...
एक और दुनिया बसने ..
एक और दुनिया मिटाने |

1 comment:

Pratik Maheshwari said...

क्या बात है... वीर रस!
बहुत बढ़िया.. जोश छा गया :)