मैं खोजने निकली अपना वजूद ज़माने में ..
मेरी तलाश सिमट कर अधूरी रह गयी ।
मैंने बोलना भी चाहा, कभी चीखना भी चाहा ..
ग़लतफहमी में ख़ामोशी, कुछ ज्यादा कह गयी ।
मैंने मोहब्बतों के लिए इक बार जीवन लुटा दिया ..
उनको लगा कि बेचारी है ये, सितम सह गयी ।
मैं क़दम उठा के बेख़ौफ़ चलने लगी रास्तों पर ..
हडकंप मच गया कि देखो झील बह गयी ।
जकड़ने के लिये कभी बुत तो कभी ख़ुदा बना दिया ..
मैंने नजर उठाई, तो मंदिर-ओ-मस्जिद ढह गयी ।
1 comment:
ये कविता क्या स्त्री समाज का दुःख व्यक्त करती है?
यदि हां तो क्या खूब कहा है आपने!
मेरी खोपड़ी में गयी नहीं ..
बताइए ..?
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