मेरे गाँव का रस्ता खाली पड़ा है
और पड़े हैं कुछ सूखे पत्ते
पलों को गिनते हुए ।
आवाज जो रुंधे गले से
निकलने की ख्वाइश में
खुद को ही दबा रही है ।
कुछ लौटते क़दमों से उडती धूल
जिंदगी का एहसास देती
मुझे अँधा बना रही है ।
और देखूं भी तो क्या भला !
सन्नाटे का कोलाहल
आत्मा चीरता निकल जाता है
बिना रक्त की बूँद बहाए
और मैं रक्तबीज बन जाता हूँ
फिर से जीने के लिए !
कुछ खाली मकान है पास में
जिनको बनाने को घर
कभी पागल हुआ था कोई
आज वो फिर से ..
पागल हो गया है ।
कभी बांसुरी की तान पर नाचती,
ये हवा जहरीली है ।
सांस में रची बसी ..
सबको लील जाने के लिए
अट्टहास सी भयावह हंसी ।
गाँव
धारे पर गिरता वो झरना
अपना रंग बदल चुका है
देखो नदी भी स्याह है
रक्त अब काला हो चुका है ।
अमराई व्याकुल हो ताकती
उन इंसानी आवाजों को
जो अब मुर्दों की जुबां बोलते हैं
मुर्दा बन जाने के लिए ।
ओ मौत के देवता !
मुझे भी समा लो अपने में
मैं अपना गाँव फिर से बसाऊंगा
अपने में ही !