मैंने तुम्हारे अस्तित्व में छुपी
अपनी सम्भावनायें तलाशी है
और समझा है स्वयं को
तुममें छनते हुए धीरे धीरे ।
बारीक रेशे की तरह रुई के फाहों में
गुन कर तुमने एक धागा बनाया है
फिर कभी ओढ़ लिया होगा इसे बेफिक्र सा
तभी तो तुम्हारा ही रंग नजर आया है ।
मेरी साँसों में धीरे से घुलता नशा
प्रतिबिम्ब है तुम्हारी याद का
मदहोश होती आत्मा डुबकी लगाती
एक निशान बच गया है साथ का ।
निशान …
जिसके सहारे मुझे जिंदगी चलानी है
वैसे ! जैसे बगैर पहिये के गाडी
इस खेल में तुम ही थे अनाड़ी !
इस खेल में तुम ही थे खिलाड़ी !
और मैं तो वैसे भी नहीं हूँ अब
शरीर यहाँ बाकी कहीं कहीं हूँ अब !
तो बताओ मुझे मुझको लौटाओगे ?
या कोई और रंग चढ़ाओगे !
No comments:
Post a Comment