शायद मैं प्रथम बार कोई दार्शनिक लेख लिखना आरंभ कर रहा हूँ.... कारण तो मैं भी नही जानता किंतु एक बात जरूर जानता हूँ "बिप्रविस के अन्दर और बाहर परिवर्तन होता है- बौद्धिक स्तर पर मानसिक स्तर पर और इससे बढ़कर आत्मिक स्तर पर !!!"
ख़ुद से एक प्रश्न पूछना है मुझे - क्या मैं खुश हूँ ? जो एक और शंका को उद्धृत करेगा - क्या मैं संतुष्ट हूँ ? और इन दोनों प्रश्नों से परोक्ष रूप में जुडा हुआ - मेरा लक्ष्य क्या है ? तीनो शब्द संतुष्टि, खुशी और लक्ष्य प्राप्ति एक दूसरे के सह पर्याय होते हुए भी अलग अलग राहों पर चलते हैं और इनका मेल ही वह अवस्था होती होगी जिसे साधक तृप्ति कहते हैं | कभी कभी सोचता हूँ कथनों का अलग अलग होना कितनी सार्थकता प्रदान करता है उदाहरण स्वरूप "संतोष ही सबसे बड़ा धन है" तथा "अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सदैव अग्रसर रहो" अब मैं दोनों को मिला देता हूँ तो सबसे पहले प्रश्न उठता है कि क्या लक्ष्य प्राप्ति संतुष्टि है ? यदि हाँ तो उस स्थति में क्या जब आप इस अवस्था को प्राप्त कर लोगे ! यदि मैं ख़ुद से पूछूं तो जवाब आता है कि कोई और लक्ष्य बनाओ क्यूंकि स्थिर होना कभी सुख नही दे सकता | मैं ख़ुद को समझाने का प्रयास करता हूँ कि 'कम से कम कुछ देर के लिए मैं स्थिर होना चाहता हूँ क्यूंकि जिस संतुष्टि के लिए मैं प्रयासरत था उसका दीदार करना चाहता हूँ मैं ताकि कुछ पल के लिए तो खुश हो सकूं | मन मना करता है ...अहम् जोर डालता है और आखिरकार 'मैं' जीत जाता हूँ | नही रुको !! ये क्या .......शून्य.......मैं खुश नही हूँ, मैं संतुष्ट हूँ लेकिन भूतकाल के लिए !! और लक्ष्य वो तो पुरातन हो गया | मेरे पास अब कुछ भी नही है | मैं फ़िर सोच में पड़ जाता हूँ कि क्या तीनो सोपानों का समागम नही हो सकता ? मैं जितना सोचता हूँ उतना ही उलझता जाता हूँ | चलिए छोडिये | मैं दूसरे विकल्प पर आता हूँ अर्थात मैं लक्ष्य प्राप्ति नही कर पाता | अब मैं जबरन मन को संतुष्ट करता हूँ ,खुश होने का दिखावा करता हूँ और शायद अपनी कमियों को आवरित करने का प्रयास भी करता हूँ | क्या मैं संतुष्ट हूँ ? हाँ (दबाव से) , क्या मैं खुश हूँ ? नही (स्वभाव से), लक्ष्य ? उसका टू सवाल ही पैदा नही होता ...उफ़ अब मैं और उलझ गया हूँ !
अब अचेतन मन ही मुझे बचा सकता है | चेतन मन विचारों का उलझाव और भटकाव था | हाँ आवाज आ रही है ....कुछ आवाज आ रही है ...अचेतन मन कह रहा है ...."लक्ष्य एक नही होना चाहिए एक परम और दूसरा 'लक्ष्य रहित पोटली' " | थोड़ा सोचूं तो कुछ समझ में आ रहा है | साधारण शब्दों में कहा जाए तो 'बड़ी खुशी का इन्तजार करो और इस आहुति में छोटी खुशियों को कुर्बान मत करो' ये छोटी खुशियाँ क्या हैं ? सामान्य जीवन की छोटी छोटी बातें - किसी के लिए चाय का एक प्याला, किसी के लिए मधु हाला | इनको लक्ष्य बनाकर लक्ष्यरहित पोटली की तरह प्रयुक्त करो जिससे लक्ष्य प्राप्ति का दबाव भी ना आए | बड़ी खुशी क्या है ? शायद चरणबद्ध लक्ष्यों की एक श्रंखला ...एक लड़ी जिसका आरंभ तो है लेकिन अंत नही | एक बड़ी खुशी मिलने पर उसे लक्ष्य रहित पोटली में डाल दो और एक नई बड़ी खुशी के लिए प्रयत्न करो | अरे हाँ कितनी सही बात है !! स्थिरता का बोझ भी नही है संतुष्टि का भूतकाल भी नही है | लक्ष्य प्राप्ति भी मनो भरकर है और 'खुशियाँ' वो तो जैसे बिखरी पड़ी हैं | अब मैं सबको जोड़ सकता हूँ ..लेकिन उससे पूर्व एक बात कहनी होगी...लक्ष्य प्राप्ति में खुशी नही है ! उसके लिए कंटक राह पर चलने में खुशी है | प्राप्ति तो अंत है और अंत सदा जड़ होता है | अब लक्ष्यों का कोई अंत नही होगा और खुशियों का भी | संतुष्टि ???? क्या वास्तव में अब इसकी आवश्यकता है ? शायद मैं कुछ ग़लत कह रहा हूँ ..हाँ ....नही ....लक्ष्य, खुशी मिलकर सुख में परिणित हो गए हैं और सुख एक सार्वभौमिक अवस्था रहेगी जब तक की आप उसे रहने देना चाहते हो ......................
Tuesday, April 1, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
Bahut hi badhiya Rikhari Bhaiya
good man... really amazing... keep blogging man
bandhoo, Bahut acche anmol vachan hain aapke..
Post a Comment