Wednesday, November 16, 2011

बुलबुले

मैं वो ही तो हूँ ..बुलबुला !
तुम्हारी तरह पैदा हुआ ..
फिर से खुद में ..
मिल जाने के लिए ..
कुछ पाने के लिए ..
हाँ ..मुझे देखो तो सही ..
मुझमें तस्वीर नजर आएगी ..
सपनो की ..अपनों की
वो भी जो पूरे न हुए ..
वो भी जो अधूरे न हुए ..
वो भी जो पिछड़ गए ..
वो भी जो बिछड़ गए ..
लेकिन अब मैं दुखी नहीं होता ..
और अब मैं अकेले में भी नहीं रोता ..
क्यूंकि मैं अकेला थोड़ी हूँ ..
भीड़ में !
नीड़ में !
घोंसला बनाने कई आये ..
हवा का अंदाजा न था ..
तो बिखर गए कुछ साये ..
तो क्या मैं भी बिखर जाऊं ?
ऐसा ही सारे बुलबुले सोचते हैं ..
नोचते हैं ..खुद को हौसला देकर ..
बनते बिगड़ते ...अपने अस्तित्व को ढूँढने ..
फिर जनम लेते हैं ...
समुन्दर में पहुँचने की आस में ..
खुद को खुश करने की प्यास में ..
और मैं भी वो ही हूँ ..
वही बुलबुला ...
जो खुद से ज्यादा नदी पर निर्भर है ..
और कुछ पत्थरों पर भी ..
डुबकी लगाने वाले ..
अभी तो मैं जिन्दा हूँ ..
देखते हैं समुन्दर की आस ..
कब ख़तम होती है ..?
जीवन की प्यास ..
कब ख़तम होती है ?

1 comment:

Anand Shankar Mishra said...

मैं भी तो बुलबुला हूँ..
जो उड़ना चाहे, ऊँचा और ऊँचा
इतना की कभी ज़मीन को छूने न पाए
इतना की पेड़ों से टकराने न पाए
अपनों से मुह मोड़ कर
इस ताने-बाने को छोड़ कर
घुटन भरे सालों से प्रिय
मुझे आज़ादी के कुछ क्षण
उनमें ही जी लूं
आत्म-रस पी लूं
कर लूं स्वयं से साक्षात्कार!