Friday, November 9, 2012

हे प्रिये


एक बात बताओ प्रिये अभी !
वो वृन्दावन की झांकी में ..
जो कलरव था बिसराया सा ..
जो भ्रमर था भरमाया सा |

वो तुम थी या था रूप तुम्हारा ..
चातक का जो बना सहारा ..
जब यौवन की अगन से कहीं ..
बादल बनकर झम झम सावन ..
ऐसे ही फिर बरस गया ..
मन मेरा यूँ ही तरस गया |

फिर बसन्त का जी मिचलाया ..
पराग वर्ण की फैली छाया ..
हंस कर कलियों की बातों को ..
टुकुर टुकुर भंवरा मुस्काया |

हे प्रिये ! तुम्हारा स्वर्ण वर्ण ..
मेरे नैना भी प्यासे हैं ..
रूप की चमक में अंधे हो ..
फिर प्यासे रह जाते हैं |

हे प्रिये ! तुम्हारे अधर रक्त से ..
सने सने क्यूँ लगते हैं  ?
मन करता है छूने का ..
अरमान बहुत से जगते हैं |

हे प्रिये ! तुम्हारे केश सुगन्धित ..
चन्दन का तरु विस्मित हो ज्यूँ ..
बल खाते से उड़ते से हैं ..
चपल तरंगो की बानी क्यूँ ?

हे प्रिये ! कभी तुम हंसती जो जब ..
प्रकृति पुरुष मिल जाते हैं ..
ऊसर धरती के देखो तब  ..
रोम  रोम  खिल  जाते हैं |

हे प्रिये ! तुम्हारा अंग प्रत्यंग  ..
देदीप्त्यमान  सा  क्यूँ लगता  है  ?
क्षितिज में एक तारा  फिर से ..
अंगडाई  ले  ज्यूँ जगता  है ।

हे प्रिये ! मगर ये  भी सच  है कि ..
काया तो बस नश्वर है 
प्रेम मेरा मोहताज नहीं है ..
ये पवित्र है ईश्वर  है ।

हे प्रिये ! अगर तुम जान सको ..
तो जानो कि मैं तुम ही हूँ ..
अस्तित्व मेरा तुममे है बसा ..
खोजो खुद में ..मैं गुम ही हूँ ।

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